चलते-चलाते: उत्तरपूर्व की देव-भूमि
चर्चा कथा पुराणों में है,
निलाद्री पर्वत शिखरों का,
कामरूप कामख्या देवी,
त्रिपुरेश्वरी देवी माता की।
रामचंद्र की माताओं का,
सप्तसुन्दरी बालाओं का
सप्तसमुद्र,सप्तऋषियों का,
देवभूमि प्रतिकण भारत का।
शीर्ष हिमालय,पर्वत भूषण,
पूरब-पश्चिम,उत्तर-दक्षिण,
तीन ओर से सागर माला,
यशगुंजन है भारत-माँ का।
राम-कृष्ण के यशगाथा में,
भारत ही तो देवभूमि है,
यही स्वर्ग तो है पृथ्वी का,
अमृत धारा से सिंचित है।
अति समृद्ध संस्कृति इसकी,
यहीं सभ्यता भी विकसित है,
वेद-पुराण ज्ञान की धारा,
मानव को उन्नत करती है।
बर्बर, जाहिल और लुटेरे,
जब प्रवेश कर देश में आये,
तोड़फोड़ औ आगजनी कर,
अपनी असभ्यता हैं फैलाये।
उन्हीं दरिंदों के कारण ही,
जंबूद्वीप के भरतखण्ड में,
देव् और ऋषियों की भूमि,
रंजित रूधिर धार से होए।
रक्तबीज राक्षस संहारक
प्रकटित दुर्गा काली माँ है,
इस धरती के सभी घरों में,
नवदुर्गा पूजित होती है।
आज पुनः देवी माता को,
जागृत हो तांडव करना है,
पुण्यधरा की देवभूमि को,
मुक्त राक्षसों से करना है।
जम्बूद्वीप देवों का स्थल,
सती-महेश्वर,जग्गनाथ की
वरदहस्त त्रिपुरेश्वरी की है,
रामकथा हर पत्थर पर है।
डॉ सुमंगला झा।