उत्तर प्रदेश चुनाव में ब्राह्मण वोट बैंक
उत्तर प्रदेश की चुनावी सरगर्मी में तापमान धीरे धीरे उफान के तरफ बढ़ रहा है। आज चुनावी राजनीति का समीकरण धीरे धीरे बदलता जा रहा है। आज से मात्र ६ महीने पहले यूपी के ब्राह्मण उपेक्षित थे। दलित नेता चंद्रशेखर एवं अनेकों अन्य लोग ब्राह्मण का उपहास करते थे। विगत में दलित पार्टी बसपा के भद्दे नारे "तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार" से हम सब अवगत हैं जो मायावती की बसपा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के अपमान के लिए बनाया था। फिर ऐसा क्या हो गया कि आज मायावती को ब्राह्मणों के सहारे की जरूरत पड़ गयी है ?
उत्तर भारत के ज्यादातर प्रदेशों में जिसमें बिहार और यूपी प्रमुख है, चुनावी प्रथा के शुरुआत से ही मुख्यतया जाति के आधार पर मतदान होता आ रहा है जो निंदनीय है लेकिन भारतीय राजनीति की वास्तविकता है। जहाँ तक यादवों का सवाल है उनमें आजकल दो मुख्य गुट हैं; एक तो प्रखर देशभक्त और दूसरा राजनैतिक तलचट्टू। उनकी दैनिक गतिविधियों से ही आपको पता चल जाएगा कि अमुक व्यक्ति किस गुट का है। यूपी और बिहार में ८० के दशकों से लल्लू और मुलायम यादव ने एक और नयी प्रथा शुरू की जिसमें "यादव और मुसलमान" एक दूसरे के लिए मत डालते रहे हैं जिसे हम 'M-Y' के नाम से जानते हैं। यही कारण है कि इन दो प्रदेशों में यादवों के साशन काल में रूढ़िवादी रैडिकल मुसलमानों का कुछ ज्यादा ही दबदबा रहा और इतने ज्यादा दंगे कराए गए। 'गैर-यादव हिन्दुओं' की बेटियों को सरेआम उठवा कर मुसलमानों में व्याह दिया जानें लगा। मजहबी खुले आम अवैध बन्दूक लेकर चलने लगे। यूपी में 'M-Y' ध्रुवीकरण के चलते मजहबियों और कुछ यादवों का गुंडाराज भी शुरू हो गया यद्यपि बहुतेरे यादव नेता मुसलामानों का सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखने की इस चाल के खिलाफ हैं।
यूपी में वोटों का जातीय समीकरण ऊपर दिया गया है। यह बात उल्लेखनीय है कि यूपी में OBC 40% है लेकिन इन वोटों पर बहुतों का वर्चस्व है... जैसे योगीजी और मोदीजी की बीजेपी, यादवों का समाजवादी, किसानों का RLD और कुछ अन्य भी। उधर दलित वोट लगभग 21% हैं लेकिन इसपर हमेंशा से मायावती और हाल ही में चंद्रशेखर की बनायी आज़ाद पार्टी अपना हक़ जताती रही है।चूंकि मोदीजी की बीजेपी सरकार ने दलित वर्गों के लिए काफी काम किया है और उनके दलित मंत्री धरातल पर काफी सारे जनकल्याण के कार्य किए हैं अतः दलित वर्ग का काफी प्रतिशत वोट बीजेपी को मिलने वाले हैं। उधर हिन्दुओं में दलितों के मार्फ़त फूट डालने में ओवैसी भरसक प्रयत्नशील हैं। कुछ वोट तो ले जाएंगे ही।
मुसलामानों का वोट इस बार बुरी तरह से बटनें वाला है क्योंकि समाजवादी के M-Y' फॉर्मूला और कांग्रेस के मुसलमान तुष्टीकरण में ओवैसी के AIMIM की जबरदस्त सेंध लगने वाली है। ओवैसी की मुसलमान वोटों पर पकड़ बिहार में सावित हो चुकी है। उधर मुस्लिम महिलाओं के कुछ वोट बीजेपी को भी मिलेगी क्योंकि मोदी की गरीब कल्याण नीति जैसे एलपीजी, गरीब आवास और आयुष्मान भारत के बहुतेरे लाभार्थी गरीब मुसलमान हैं। उधर तीन तलाक़ के हिमायती भी कुछ मुस्लिम औरत हैं।अगर कम्युनिस्ट पार्टी ने उम्मीदवार खड़े किए तो माओवादी गतिविधियों में लिप्त कुछ मुसलमान का वोट अवश्य बँटेगा।
अब बच गया ब्राह्मणों का 12% वोट। चूँकि ब्राह्मणों की अपनी कोई पार्टी नहीं है और इसबार वे अपने आप को संगठित भी कर रहे हैं, यह एक नया 'वोट बैंक' बनने वाला है। इसे पाने के लिए अभी लगभग सारी पार्टियाँ उन्हें मनाने में लगीं हैं चाहे योगी हों या मायावती, अखिलेश यादव हो या यहाँतक कि कांग्रेस और ओवैसी भी। कोई नहीं जानता ऊँट किस करबट बैठने वाला है। वैसे ब्राह्मण सदैव से देश हित में संलग्न पार्टी के लिए वोट करती रही है जो विगत में कांग्रेस थी और अब BJP है। अतः अगर मोदीजी और योगीजी प्रयास करें तो उन्हें ब्राह्मण वोटों का अत्यधिक लाभ मिल सकता है और यह चुनावी सफलता की कुंजी हो सकती है।
एक समय था जब सिर्फ मुसलमान ही 'वोट बैंक' था और कुछ राजनैतिक दल उनके पिछलग्गू हुआ करते थे जिसमें कांग्रेस निपुण था । फिर UP और बिहार के लालची यादव नेता मुसलमानों के तलचट्टू बनकर अपना 'M-Y' समीकरण बनाया; या यूं कहें कि मुसलमानों का वोट आपस में बाँटने की शुरुआत... कि "तुम मुझे जिताओ मैं तुम्हें जिताऊँगा, तुम्हारी कौम के लिए काम करूंगा" । मुल्ले 'चुनावी फतवा' जारी करते थे कि अमुक दल को वोट दो और फिर मुसलमान अपने धर्म के आधार पर सामूहिक वोट डालते थे।इस तरह दशकों से प्रजातांत्रिक मूल्यों का बलात्कार होता रहा है और निर्वाचन आयोग मूक दर्शक बनी बैठी रही। ‘मुलायम एंड संस’ और ‘लल्लू एंड संस’ M-Y फार्मूले पर इस चुनावी भ्रष्टाचार में दशकों तक लिप्त रहे। हाल ही में देश ने ममता के तृणमूल का गिरगिटी रंग देखा जब 'बैंडिट क्वीन' ने बंगाल के २०२१ चुनाव में अपनी डूबती नैया को बचाने के लिए मुसमानों के तलवे चाटे, विपक्षी नेताओं के हाथ जोड़े और फिर दूसरों के बल पर बीजेपी पर जीत हासिल की।
अब, जब से ओवैसी ने मुसलमानों का ध्रुवीकरण शुरू कर दिया है, मुसलमानों के तुष्टीकरण करने वालों की नींद हराम होने लगी है। लेकिन पिछले कुछ चुनावों में उससे भी अधिक अप्रत्याशित घटनाएँ घटीं हैं जिसके फस्वरूप पहले दलित और अब ब्राह्मण नए-नए ‘वोट बैंक’ बने हैं। अब इस ‘ब्राह्मण वोट बैंक’ को राजनैतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले ‘दलित’ और ‘दौलत की बेटी’ मायावती जहाँ मोती के दाने डालने की कोशिश कर रही है, वहीं बीजेपी भी ज्यादा पीछे नहीं है। पिछले साल ही यूपी कांग्रेस के प्रमुख ब्राह्मण नेता जितिन प्रसाद को बीजेपी ने अपनाया था । अब जब यूपी चुनाव सर पर है, यादवों की समाजवादी पार्टी भी बेशर्म की तरह एक और जहाँ मुसलमानों को 'वोट बैंक' की तरह भुना रहा है वहीं 12% ब्राह्मणों पर भी उसकी नजर टिकी है और गिरगिटी रंग चढ़ाकर किसी भी तरह वोट हासिल करने की कोशिश में है।
वैसे देखें तो ब्राह्मण हमेशा से देश हित में कार्यरत रहे हैं और विरले ही अपनीं जाति-विशेष के लिए कोई विशेष कार्य या कोई सौदा किया है जिसके लिए उसे 'वोट बैंक' बनना पड़े। देश के ब्राह्मण मोदी सरकार से कमोवेश खुश हैं कि देश की 'सेना और आर्थिक व्यवस्था' मजबूत हुई है तथा भ्रष्टाचार कम हुआ है। उससे भी ज्यादा खुशी इस बात से है कि कश्मीर से धारा ३७० समाप्त, राम मंदिर का निर्माण कार्य शुरू और CAA लागू हुआ। देश में अप्रत्याशित विकास कार्य चल रहे हैं।आज देश के सबसे कमजोर वर्ग को DBT के मार्फ़त सहायता और किसान सम्मान का लाभ पूरे देश को मिल रहा है। ब्राह्मणों ने अभी तक अपने लिए कुछ भी नहीं माँगा है।
यह बात अलग है कि पिछले 3-४ दशकों में ब्राह्मणों की काफी अवहेलना हुई है।मुसलमानों को खुश करने की मंत्रणा में तुष्टीकरण के तहत वेदों, पुराणों, उपनिषदों, कर्मकांडों आदि की शिक्षा लगभग लुप्त हो गयी है। आज मेधावी ब्राह्मणों में गरीबी, बेरोजगारी अत्यधिक बढ़ गयी है और आम तौर पर प्रतिभाशाली ब्राह्मण जाति गहरे संकट में है। अन्यों की अपेक्षा अधिक अंक अर्जन करने वाले ब्राह्मण विद्यार्थियों को उच्च प्रोफेशनल शिक्षा संस्थानों में प्रवेश नहीं मिलता वहीं दूसरी ओर बेहतर प्रतिभा वाले ब्राह्मण युवा सरकारी वृत्ति से लगभग वंचित होकर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। रिजर्वेशन के दौड़ में उच्च जाति की प्रतिभा पर ग्रहण सा लग गया है जिससे देश का ही नुक्सान हो रहा है।
एक समय था जब देश में बुद्धिजीवियोँ का वर्चस्व था। ये बुद्धिजीवी कोई भी हो सकते थे… नेहरूजी, गांधीजी आंबेडकर या फिर पेरियार।स्वतन्त्रता के पूर्व या उपरान्त ऐसे बुद्धिजीवियों और राष्ट्रभक्तों की सूचि बहुत लम्बी है; वैसे यह बात और है कि इनमें ब्राह्मणों की आनुपातिक संख्याँ बहुत ज्यादा थी। देश में जितने भी समाज सुधारक हुए; वे चाहे दलितों एवं वंचितों के उत्थान के लिए हो, महिला कल्याण के लिए, हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए, सामाजिक असमानता दूर करने के लिए, कमजोर वर्गों को साथ लेकर चलने की बात होया फिर देशभक्ति में अपने आप को ओत-प्रोत करना; ब्राह्मणों एवं कुछ अन्य उच्च वर्गों का योगदान एवं समर्पण अतिविशिष्ट एवं अतिसराहनीय रहा है। यह सब कुछ करने के बावजूद आज के कुछ भ्रमित युवा दलित वर्ग ब्राह्मणों के तिरस्कार करने से नहीं झिझकते।सोशल मिडिया में अक्सरआपको ऐसे अनेकों हैशटैग मिलते रहेंगे जिसमें यादवों, पढ़े लिखे OBC और मुसलमानों की भागीदारी ज्यादा होती है। ऐसी गतिविधियों से आपसी फूट व असामन्जस्यता के संकेत मिलते हैं और इससे देश-विदेश के मुसलमान और क्रिश्चियनअत्यधिक प्रसन्न होते हैं।
तो आइये, वापस यूपी की चुनाव पर आएँ। क्या सतीश मिश्र का ब्राह्मण चेहरा बहुजन समाज पार्टी को ब्राह्मण वोट दिला पाएगा ? अब तक तो ब्राह्मण बुद्धिजीवी ही रहे हैं और कभी 'वोट बैंक' बननें की आवश्यकता ही नहीं पड़ी । राजनैतिक दृष्टि से मेधावी ब्राह्मण अपनी-अपनी रोटी सेंकनें के लिए अलग अलग दल में हैं। एक ओर जहाँ दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रखर प्रवक्ता मनोज झा 'चारा चोर' के खेमें में हैं वहीं दूसरी ओर विनय शंकर तिवारी और दिग्विजय चौबे 'टोटीं चोर' के खेमें में दिखाई दे रहे हैं। जब तक कांग्रेस एक वैचारिक दल रहा, लोगों का उससे वैचारिक जुड़ाव यथोचित था लेकिन जब से यह इतालवी महिला की पारिवारिक पार्टी बन गयी है यह अपने पतन की ओर उन्मुख है। अब कांग्रेस खुलकर मुसलमानों के साथ खड़ी, हिन्दू विरोधी बन गयी है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अब भी बहुतेरे हिन्दू और ब्राह्मण इसके समर्थक हैं। संजय झा को दल से लताड़ दिया गया फिर भी वे सर झुकाए उसी के साथ हैं और ऐसे उदाहरण अनेकों हैं। क्या ब्राह्मणों को अपनी एकता सुदृढ़ करना चाहिए या सम्पूर्ण हिन्दू धर्मावलम्बियों को साथ में लेकर ही चलना चाहिए ? एक ओर दलित वर्ग अपना वर्चस्व बढ़ाना चाहते हैं वहीं दूसरी ओर मुसलमान हममें आपसी फूट डालने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं।
बिड़म्बना यह है कि ब्राह्मणों का तिरस्कार करने वाले ये चोरों और दलितों की पार्टी अपने आप को ‘ब्राह्मण चेहरा’ साबित करने की कोशिश में लगी है। यूपी में ब्राह्मणों की संख्याँ लगभग 12% है अतः अन्य जातियों की तुलना में दूसरी सबसे बड़ी जाति है। यही कारण है कि सारे दल मानसिक रूपेण प्रताड़ित ब्राह्मणों को रिझाने में लगे हैं।
लेकिन क्या ब्राह्मणों में एकता आएगी ? क्या ब्राह्मण अपने आपको एकजुट कर पाएंगे ? क्या पाँच उँगलियों जैसे अलग-अलग ब्राह्मण एक मुट्ठी बनकर शक्तिशाली बन पाएंगे ? क्या ब्राह्मण कमोवेश 'सामूहिक वोट' किसी एक पार्टी को डालेंगे ? अगर वे ऐसा करते हैं तो इससे ब्राह्मणों की शक्ति बढ़ेगी और भविष्य में कोई भी जाति विशेष उनका तिरस्काए करने से बचेगा।लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा ? यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
आने वाले चुनावों में अगर यादव और मुसलमान फिर वोटों का ध्रुवीकरण करते हैं तो ब्राह्मणों को एकजुट होकर वोट डालने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। निर्वाचन आयोग या तो संविधान से जातिप्रथा समाप्त करवाएं या फिर जाति या 'M-Y' समीकरण अपनानें वाले हर नेताओं को अवैध घोषित करें। अगर ऐसा नहीं होता है तो जाति ध्रुवीकरण एक काला धब्बा बनकर चुनावी प्रथा पर लग जाएगा।