चलते-चलाते: "गिरगिट"
सरगम की धुन बन सुखद गीत,
जब जीवन में उतराती है,
मानव समझे है स्वर्ग यही,
फैला आँचल भर लेती है।
फिर सात सुरों की दुःख दरिया,
जब बाढ़ बनी फैला पानी,
सब कुछ उसमें बह जाता है,
न पाता उसे पुनः प्राणी।
सुख-दुःख जीवन में आते हैँ,
है, सत्य यही माना मैंने
पर क्यों खुद को दुःख में डालूँ,
स्वार्थी को सुख मैं पहुँचाऊँ।
'वो' पाठ पढ़ा आदर्शों का,
कर, दया, त्याग और सेवा का,
पर जिसके हित दुःख झेला है,
उसने तुमको क्या समझा है।
अब करो किनारा उन सबसे,
अपमान तुम्हारा जो करते,
बस अपने स्वार्थ साधने को,
अपनों का ढोंग रचा करते।
छल कर कपटी सियार से जो,
गिरगिट-सा रँग बदलते है,
क्षण में तोला क्षण में मासा
बन,पास तुम्हारे फ़िरते हैं।
है सत्य यही इस जीवन का,
जो मैंने गल कर पाया है,
स्वार्थी अपनों के बीच फँसी,
अपना सर्वस्व लुटाया है।।डॉ सुमंगला झा।।