चलते चलाते : गर्मी की छुट्टी
है आज हुई लंबी छुट्टी,
हम ए.सी. में चुप बैठे हैं,
गर्मी-गर्मी, कहते-कहते,
आलस को पाला करते हैं।
उत्तर भारत की गर्मी को
जैसे हमने झेला न हो,
जैसे जलती-सी लू में भी,
बाहर अमियाँ तोड़ा न हो।
कहती थी माँ घर में ही रह,
हम आँख बन्द कर लेते थे,
पर ज्यों ही माँ सो जाती थी,
हम बाहर निकला करते थे।
हम बच्चों का था झुंड बड़ा,
कोई भी फ़ोन नहीं तब था,
पर जाने कैसे हम सब का,
एक साथ निकलना होता था।
अमरूदों के उन पेड़ों पर,
कितनी जल्दी चढ़ जाते थे,
रखवाले देख न पाते थे,
हम आम तोड़ भी खाते थे।
अपने फ्रॉकों के घेरे को,
हम बाँध कमर में लेते थे,
'वो' ऐसा थैला होता था,
जो कभी न छोटा होता था।
यदि कभी किसी को रखवाला,
था दूर दिखाई दे जाता,
कोई करता था,'कुहू-कुहू',
सुन, भागे बाहर आते थे।
कपड़े-फटते ,काँटे-लगते,
वो दाग!आम-जामुन के थे,
लगती खरौंच बाहों पर थी,
घुटने तो छिलते ही रहते।
हम नहीं कभी तब रोते थे,
न अपनी चोट बताते थे,
जब ज्यादा घायल होते थे,
तब बैठ कहानी पढ़ते थे।
हम-सब को शान्त देख कर माँ,
फिर-फिर मँडराया करती थी,
फिर जाँच-परख होती अपनी,
फिर डाँट,दवाई मिलती थी।
कोई भी लम्बी छुट्टी तब,
छोटी महसूस ही होती थी,
सर्दी,गर्मी हो या बारिश,
सबमें उत्साहित रहती थी।।डॉ सुमंगला झा।।