Rail journey of Corona Times

कोरोना कहाँ है?

कोरोना कहाँ है?अपने आपको मजबूत बनाइये, मास्क लगाने से कुछो नहीं होता है। अरे ..रे ..ए..भाषण देते हैं...न्यूज नहीं देखिए...दिमाग खराब होता है...इतना लोग है..एक आपही को कोरोना दिखता है...ठीक से देखिए..., कहीं है कोरोना...?..अरे...मास्क लगयेंगे तो बोलेंगे कैसे..?..आपको तो ऐसे ही टेन्सन होता है..नहीं सोचियेगा तो कुछो नहीं होगा। ..इंजेक्शन तो लेइये लिए हैं। काहे को परेशान होते है..जो होना होगा..गा.. वह तो होइबे करेगा....।
ये खूबसूरत वक्तव्य या आधुनिक भाषा में डायलॉग मेरे नहीं हैं,ये उन सहयात्रियों और आम नागरिकों के हैं जिनकी उपस्थित मेरे आस-पास थी।


दो साल के बाद जब कोरोना का प्रकोप अवसान पर था तथा लगभग करोड़ों की जनसंख्या का कोविड टीकाकरण हो चुका था तो एक करीबी रिश्तेदार की बेटी की शादी में उपस्थित होने की हिम्मत जुटा कर अकेले ही बंगलुरू से बिहार की राजधानी जयप्रकाश नारायण एयरपोर्ट पहुँच गयी। एयरपोर्ट पर तो कोविड तथा टीकाकरण के सर्टिफिकेट की जाँच की अनिवार्यता सहज प्रतीत हुई परन्तु बाहर आते ही लोगों के लापरवाही भरे दृश्य ने दृष्टिकोण ही बदल दिया। आवाजाही करने वालों की संख्या बहुतायत में थी परन्तु चेहरे पर मास्क कहीं-कहीं अपवाद से थे।


'दो ग़ज़ की दूरी ,मास्क है जरूरी' का मंत्र कुछ ऐसा ही था जैसा जंगल के तोतों को एक साधु का दिया गया मंत्र...'शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा,लोभ से उसमें फँसना नहीं।'
परिजनों की छोड़ें मेरी अगवानी के लिये आये हुए स्वजनों की भी लापरवाही कुछ ऐसी ही थी। पूछ ही बैठी ..मास्क कहाँ है? क्यों नहीं लगाया है? पहले मास्क लगाओ फिर पास आना। वाह! वाह! क्या बात है? हे भगवान ! ...मुझे दिखाया गया... मास्क पॉकेट में है। मेरे आग्रह के कारण ही मास्क चेहरे पर डाला गया परन्तु नाक खुला ही था।
आस-पास उपस्थित टैक्सी ड्राइवर उनके दलाल सभी मस्त थे। कोरोना,उसके विभिन्न प्रारूपों से होने वाली विभीषिका से पूर्णरूपेण लापरवाह थे। अज्ञानता, ढिठाई या लापरवाही पता नहीं किस प्रकार की मानसिकता थी जो मेरे द्वारा टोके जाने पर उनके द्वारा दिये गए आरंभिक कुछ पंक्तियों में वर्णित तर्क ने अपनी बुद्धि भ्रमित कर दी।
चुपचाप अपने रिश्तेदार के घर पहुँच गई,जिन्हें देख कर ऐसा विश्वास हो गया कि कोरोना कहीं नहीं है। यह सिर्फ मेरे मन का भ्रम है फिर भी एहतियात के तौर पर मैंने मास्क लगाए रखना ही उचित समझा और लगाये रखा क्योंकि इसी शर्त पर मुझे बिहार जाने की अनुमति मिली थी।


दूसरे दिन की यात्रा ट्रेन से गाँव तक की थी जिसका अनुभव अपने आप में ही अतुलनीय था।पटना शहर के अन्दर परिवहन के आवागमन पर न्यूटन का प्रथम सिद्धांत कुछ ज्यादा ही जड़ होता है अतः ट्रेन समय पर पकड़ पायें इसलिए ई-रिक्शा चालक ने मुख्य मार्ग का त्याग कर तंग गलियों का रास्ता अपनाया। भीड़ भरे बाज़ार में कहीं भी कोई मास्क लगाए नज़र नहीं आया। गाहे-बगाहे यदि कहीं मास्क दिख भी जाता तो वह व्यक्ति के ठुड्ढी पर ही लगा दिखाई देता था। तंग गलियों में हर क्षण तेज गति से आने वाली मोटरसाइकिल स्कूटर या किसी व्यक्ति से टकराने का अंदेशा होता रहा परन्तु गजब का खूबसूरत समझौता लोगों के बीच में था। सड़कों पर सजे बाजार, तेज गति,आधे-आधे इंच के फासले के बाबजूद कोई किसी से नहीं टकराया न ही किसी दुकान के सामान का कोई नुकसान हुआ,अलबत्ता अपनी साँसे रह-रह कर अटकती रही। खैर जो भी हो राम-राम करते किसी तरह रेलवे स्टेशन के लगभग पास तक पहुँच गयी परन्तु आगे ट्रैफिक अनार दानों की तरह जमी हुई थी जिसके बीच से ई-रिक्शा किसी भी तरह आगे नहीं बढ़ सकती थी अतःवहाँ बगल की गली से समान कंधों पर ढोकर ट्रेन के स्टेशन से छूटने से पहले पहुँचना जरूरी था।

शादी में उपस्थिति दर्ज कराने वाले अन्य रिश्तेदारों के साथ हमारी दौड़ आरम्भ हो गयी जो किसी तरह हाँफती हुई साँसों के साथ ट्रेन के पास जाकर ही रुकी। जाने क्या समस्या थी लोगों ने प्रवेशद्वार को ही अवरुद्ध कर रखा था,भीड़ इतनी कि बोरी में डाले गए अनाज हों या यूँ कहें कि बोरी में रुई ठूस-ठूस कर भरा गया हो। मुझे भी एक रिश्तेदार ने ट्रेन की बोगी नामक बोरी में जोरदार धक्का देकर चढ़ा दिया तथा खुद भी एक को खींचते किसी तरह अन्दर प्रवेश कर गया। ट्रेन चल पड़ी परन्तु आगे किसी भी तरह बढ़ कर अपने रिजर्व किये गए सीट तक पहुँचना सम्भव नहीं हो पाया। काफी देर उन मास्क रहित लोगों के बीच पिसते रहने के बाद हिम्मत कर जब अपने सीट तक धक्के खाते,पिसते हुए पहुँची तो वहाँ बैठे लोगों ने सीट खाली करने में आनाकानी दिखानी आरम्भ कर दी।


दादागिरी करने वालों को कोई उससे ज्यादा बली दादा ही सही रास्ते पर ला सकता है तो अन्य रिश्तेदारों के पहुँचते ही मुझे अपने लिये रिजर्व कराए गए सीट पर बैठने का मौका मिल गया। अब हमने अपने लोगों को ढूंढना आरम्भ किया,मोबाइल फोन के उपयोग से पता चला कि भीड़ के कारण परिवार के छः लोग तो ट्रेन में चढ़ भी नहीं पाए थे। उनके लिए रिजर्व की गई सीटों पर बिना टिकट वाले लोगों ने अधिकार जमा रखा था। प्रवेश द्वार पर यदि टिकट रहित लोगों ने भीड़ नहीं लगाई होती तो सराफत से सीट रिजर्व कर चलने वाले यात्री अपने गंतव्य तक सहूलियत से यात्रा कर सकते थे परन्तु यहाँ तो जिसकी लाठी उसकी भैंस थी।


खैर छूटे हुए रिश्तेदारों से बात हो गयी थी वे दूसरी ट्रेन में रिजर्वेशन करा कर गंतव्य स्थान तक पहुचने का निर्णय ले चुके थे। रिजर्वेशन के पैसे बर्बाद हुए परन्तु राहत थी कि वे सभी सुरक्षित थे। खयाल आया मास्कहीन भीड़ लगाने वाले आम लोगों ने न सुधरने की कसम खा ली हो तो मोदी क्या, कोई भी सरकार इनका क्या कर लेगी ? जहिलता को ही शायद ये बहादुरी समझते हैं जिसके कारण अनुशासित लोगों को मुश्किलें झेलनी पड़ती है। अपनी लापरवाही से यदि ये मरेंगे तो मोदी या जो भी प्रशासन में होंगे उन्हें जी भर कर गालियाँ दे लेंगे। खैर क्या किया जाए ! जाने दो! हमें भी अपनी सीट तो मिल ही गयी थी अतः चुपचाप बैठने में ही भलाई थी। किसी पड़ाव के आने से पहले किसी तरह साथ के सामानों की खोजबीन,रख-रखाव के बाद राहत की सांस लेना ही चाहती थी कि ऊपर रखे गए सामानों में से किसी यात्री का भारी-भरकम 'वी आई पी' सुटकेस बगल में बैठी औरत के सिर पर आ गिरा जो तत्क्षण मूर्छित हो गयी। कुछ प्रयास के बाद होश आने पर औरत दर्द से कराह रही थी।आस-पास के लोगों का गुस्सा फूट रहा था, लेकिन सूटकेस का मालिक अपनी लापरवाही पर अफसोस करने के बजाय दलीलें दे रहा था जिसके कारण वह पिटते-पिटते रह गया। शायद बिहार में ये आम बातें हैं।


भीड़ थोड़ी कम हुई तो मास्कहीन छोटे व्यापारी मूंगफली, चबेने, पकौड़े, झालमूढ़ी ,अमरूद तथा अन्य सामान बेचने के लिये ट्रेन में आवाजें लगाने लगे तथा लोग खरीद कर खाने-पीने में भी तल्लीनता से लगे रहे थे। आगे के प्रकरण के संदर्भ कुछ ज्यादा रोचक थे। खाद्य पदार्थों का पाचनतंत्र के अन्दर अन्तरगमन और बहिर्गमन की प्रक्रिया के सुचारू रूप से चलने के कारण मोदी जी द्वारा चलाया गया स्वच्छता अभियान और ट्रेन में लगाया गया बायो टॉयलेट दोनों ही चीख-चीख कर अपनी दुर्दशा का रोना रो रहे थे,जिसके प्रति किसी को सहानुभूति नहीं थी। हमारे ऐसे बेबस लोगों ने मास्क पर इत्र छिड़क लिया था क्योंकि ऐसे महान लोगों की भीड़ के बीच कुछ बोलना असभ्यता थी। खैर जो भी हो अन्ततः ट्रेन की यात्रा भी पूर्ण हुई,गाँव पहुँचने पर देखा कि कोरोना नामक भयानक बीमारी के फैलने के डर का कहीं कोई कोई संकेत भी नहीं था। मेरे अलावे किसी के चेहरे पर मास्क नहीं था बल्कि मेरे द्वारा बरती जाने वाली सावधानियाँ अन्य लोगों के लिए उपहासप्रद थी। शादी समारोह के मौके पर मास्क से ज्यादा श्रृंगार का महत्व होना स्वाभाविक ही है जो वहाँ भी था।


अब जब हफ्ते के बाद अपने घर वापस आ गयी हूँ तो ऐसा महसूस हो रहा है कि किसी जंगल से सुरक्षित वापस घर आ गयी हूँ। ये हालात सिर्फ बिहार का ही नहीं आंध्र प्रदेश तथा अन्य राज्यों के ग्रामीण एवं शहरी इलाकों का भी है। ज्यादातर लोग बिना मास्क के समूहों में लगभग चिपके से जोर-जोर से बातें करते दिखाई दे जाते है। लिखते हुए सोच रही हूँ कि पढ़े लिखे हों या अनपढ़ यदि मनुष्य स्वयँ ही सुरक्षित न रहना चाहते हों तो मोदी सरकार या स्वास्थ्य सुरक्षा कर्मी कितना भी प्रयास कर लें भला ऐसे लोगों को जीवन-सुरक्षा कैसे प्रदान कर सकते हैं?


ये तो भारत सरकार एवं स्वास्थ्य कर्मियों की महानता है कि ईंट-पत्थरों की मार खा कर,गालियाँ सुन कर भी दिन-रात कर्मयोगी बन इतने लोगों का टीकाकरण कर, इन्हें जीवन जीने का वरदान दिया है। जहिलता से भरे लापरवाह लोगों की भी जीवन रक्षा हेतु भारत के स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा निःस्वार्थ सेवा की कितनी भी प्रशंसा की जाए कम ही है। इन सभी स्वच्छता कर्मियों, स्वास्थ्य कर्मियों, भारत सरकार की दृढ़ता और उनके द्वारा चलाये गए नागरिक सुरक्षा अभियान के स्वप्न को सकारात्मक समर्थन देने वाले विभिन्न विभागों को सत-सत नमन है। आपके द्वारा किये गए निःस्वार्थ अविस्मरणीय कार्यों को युग-युगों तक याद रखा जायेगा। भारत कर प्रत्येक लापरवाह व्यक्ति या जनता को भी शायद विश्वास है कि मोदी के रहते कोरोना यमराज के दूतों से उसकी जिंदगी सुरक्षित ही है,अन्यथा अन्य स्थानों के साथ-साथ चुनावी रैलियों में भी इतनी लापरवाही न बरती जाती।

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