bangles in police hands

वाह री दिल्ली पुलिस ! साष्टांग प्रणाम !

भारत के गणतंत्र दिवस के दिन पंजाबी "ट्रेक्टर-आतंकवादियों" का दिल्ली पुलिस ने जिस साहस से सामना किया है उनके प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गए हैं। आज पूरा विश्व दिल्ली पुलिस को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर रही है। उनकी सबसे ज्यादा तारीफ़ पाकिस्तान के आतंकवादी एक स्वर से कर रहे हैं, वो चाहे खालिस्तानी हों, जिहादी या वहाँ के अतिवादी। इतना ही नहीं। विश्व के जिन जिन देशों से किसानों की आड़ में काम कर रहे खालिस्तान समर्थकों को आर्थिक व नैतिक सहायता मिल रही है, सब दिल्ली पुलिस की वह-वाही कर रहे हैं।यह शौर्य गानठीक उसी तरह है जिस तरह १९६२ की लड़ाई के बाद चीन ने नेहरू को सराहा था; जिस तरह२६/११, संसद हमला, मुंबई सीरियल बम धमाके, पठानकोट आदि आतंकी हमलों के बाद पाकिस्तान ने भारत को सराहा था।भारतीय गौरव के प्रतीक दिल्ली पुलिस को सचमुच चूड़ियाँ पहन ही लेनी चाहिए।उनके हाथों में बीती शताब्दियों वाला डंडा अच्छा नहीं लगता है।इससे मानवाधिकार के हनन जैसी बू आती है।

दो महीने से चले आ रहे तथाकथित 'किसान आंदोलन' से किस राज्य के पुलिस अवगत नहीं है ? गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले कुछ राजनैतिक पार्टियों के आक़ा तो दिल्ली में ही वास करते हैं। कौन नहीं जानता कि नागरिकता क़ानून के खिलाफ मुसलामानों को भड़काने वाली, सड़क पर उतर कर आर-पार की लड़ाई के लिए उकसाने वाली कोई और नहीं कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष सोनिआ गांधी और उसकी पुत्री प्रियंका वाड्रा ही थी जो पुलिस के गिरफ्त से आज भी बाहर है। इसी तरह फार्म क़ानून पर किसानों को भड़काने वाले कोई और नहीं, वही सोनिया गांधी और उनके कुपुत्र राहुल गांधी हैं जो पंजाब जाकर किसानों को भड़काकर अपने नानीं के घर छुपने इटली चले गए थे। यह भी सर्व विदित है कि अभी चल रहे किसान आंदोलन में अधिकतर 'मंडी के दलाल' और बड़े किसान हैं जो छोटे और मध्यम किसानों का खून चूसने में माहिर हैं। ये दलाल अपना दलाली नहीं छोड़ना चाहते इसलिए महीनों का राशन पानी लेकर टेंट में अपने परिवार के साथ आराम से रह रहे हैं। ये आए तो थे दिल्ली में डेरा जमाने, परन्तु वह नहीं हो सका। इसलिए ज्यों ही उन्हें गणतंत्र दिवस पर टैक्टर रैली निकालने का बहाना मिल गया, बस और क्या था ? दिल्ली घुस गए। इन ट्रैक्टरों पर सवार लगभग सभी लोगों ने कहा था कि वे अब दिल्ली में ही अपना डेरा जमाकर प्रदर्शन जारी रखेंगे।

इतना ही नहीं, इन कांग्रेसियों और किसान के दलालों के अतिरिक्त इस भीड़ में हन्नान मोल्ला जैसे कुछ कम्युनिस्ट नेता, खालिस्तानी एक्टिविस्ट्स और SFJ के लोग भी देखे गए थे। AAP के केजरीवाल का भी इन्हें सहयोग था साथ ही आंदोलन की आग में रोटी सेंकने वाले योगेंद्र यादव जैसे व्यक्ति भी थे। अतः इस आंदोलन में अराजक तत्वों के हाथ होने का खंडन नहीं किया जा सकता। ये किसान के दलाल नेता रैली की आड़ में दिल्ली में अराजकता लाने पर तुले थे। इन्हों ने लिखित रूप से पुलिस को आश्वासन दिया था और ट्रेक्टर रैली को शांतिपूर्ण रूप से चलाने की जवाबदेही ली थी। अतः वे किसी भी तरह अपने जुर्म से मुकर नहीं सकते।

यह जानते हुए कि क़ानून व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाने वाले किसान नेताओं पर विश्वास नहीं किया जा सकता, दिल्ली पुलिस के जॉइंट कमिश्नर श्री सुरिंदर सिंह यादव द्वारा किसान नेताओं के साथ नियोजित कई दौर की बातचीत के बाद उनसे समझौता किया... कि चोर खुले घर में चोरी नहीं करेंगे... कि डाकू खुला बैंक लूट नहीं लेंगे... कि दिल्ली की सडकों पर अराजकता फैलाने के निहित आए हुए किसानों के दलाल ट्रेक्टर जैसी 'टैंक' से दिल्ली की सडकों को वाधित नहीं कर देंगे... कि खालिस्तानी समर्थक १५ अगस्त से ही लाल किले पर खालिस्तानी झंडा फहराने को लालायित 'ट्रेक्टर रैली' के बहाने अपना उद्देश्य पूरा नहीं करेंगे। उन्होंने भेड़िए के खालों में छिपे टिकैत और 'दलाल नेताओं' पर विश्वास कर देश के गणतंत्र की चाबी ही उन्हें सौंप दी। तनिक भी नहीं सोचा कि ट्रेक्टर-आतंकियों ने अगर अपना रास्ता बदल लिया, जिसकी सारी सम्भावनाएँ पहले से ही थीं, तो हाथों में डंडा लिए, तंद्रा में ऊंघ रहे दिल्ली के बहादुर पुलिस क्या करेंगे,? आम किस्म के सड़क-अवरोधक, जो क़ानून व्यवस्था को मानने वाले नागरिकों के लिए ही उपयुक्त हैं, उन ट्रेक्टर-आतंकियों के सामने कैसे टिक सकेंगे ? गणतंत्र दिवस के दिन, जिसमें अधिकतर दिल्ली पुलिस राजपथ और VIP सुरक्षा में व्यस्त होती है, 'प्लान बी' क्या था ? क्या गृह मंत्री अमित शाह जी ने एक बार भी जानना नहीं चाहा कि देश की राजधानी के हित के इन महत्वपूर्ण विषयों पर दिल्ली पुलिस की क्या व्यवस्था है ? वह री दिल्ली पुलिस और वह री “दिल्ली पुलिस के मुखिया, भारत के गृह मंत्री”। आप सबों को साष्टांग प्रणाम।

किसानों के दलाल और उनके मक्कार नेताओं तथा उनकी ट्रेक्टर-आतंकियों की बदनीयती गणतंत्र दिवस के दिन पौ फटते ही ज्ञात हो गया था जब कुछ ट्रेक्टर चालक ने रैली के शर्तों का उल्लंघन कर सड़क अवरोधों को तोड़ आगे बढ़ते गए। हर ट्रेक्टर पर अनेकों लोग सवार थे। ज्यादातर ट्रेक्टर में सवारियों से भरी ट्रॉली भी लगी थी। यह बिलकुल तय था कि ट्रेक्टर-आतंकियों का कुछ और ही मनसा था। दिल्ली कूच कर रहे हर ट्रेक्टर चालक और उस पर सवार लोग टीवी चॅनेल के रिपोर्टर्स से यही कह रहे थे कि वे दिल्ली के लाल किले जा रहे हैं। यह खबर अवश्य ही दिल्ली पुलिस के नियंत्रण कक्ष भी पहुँचा होगा। लेकिन समय रहते न QRT तैनात किया गया, न कर्फ्यू लगाया, न ही पारामिलिट्री। दिल्ली पुलिस को साँप सूंघ गया था। वे शायद किंकर्तव्य-विमूढ़ थे। अफरा-तफरी में ITO सड़क को बंद किया गया परन्तु ट्रेक्टर-आतंकी किसी न किसी तरह आगे निकल ही गए। देखते ही देखते लाल किले के पास कई हज़ार दंगाई जमा हो गए।

इन हज़ारों दंगाइयों का ध्येय बिलकुल साफ़ था। लाल किले के प्राचीर पर अपना झंडा फहराना। हज़ारों का झुंड एक साथ लाल किले में दाखिल हुआ। सुरक्षा व्यवस्था के सारे यंत्र को तोड़ते फोड़ते वे सीधे लाल किले के प्राचीर पर एक बड़े झुंड में दाखिल हुए। उनका मकसद वहाँ अपने साथ लाए हुए झंडा फैलाना था। जो मुट्ठी भर पुलिस आस-पास थे वे मूक दर्शक थे। यह सब कुछ ज्यादातर टीवी चॅनेल पर लाइव चल रहा था। दंगाइयों के झुंड ने प्राचीर पर जाने वाली सीढ़ियों को कुछ इस तरह बाधित कर रखा था कि अन्य कोई भी झंडा फहराने वाले मास्ट तक पहुँच न सके। फिर हम सबों ने वह दृश्य देखा जो असह्य था। भारतीय तिरंगे का अपमान।कुछ दंगाई अगल बगल वाले गुम्बजों से भी तिरंगा फेंक कर वहाँ अपना झंडा लगा रहे थे।फिर कुछ तलवार लिए हुए सिख निहंग भी दिखे जो मुख्य तिरंगे को निकालने की कोशिश कर रहे थे।

Indian tricolour

फिर कुछ और हैरान करने वाले दृश्य भी थे। एक जगह दिल्ली पुलिस के दर्जनों सिपाही सड़क पर बैठ कर ट्रेक्टर-दंगाइयों को रोकने की कोशिश कर रहे थे। वहीं कुछ ऐसे भी दृश्य सामने आए जहाँ दर्जनों दिल्ली पुलिस दंगाइयों के डर से भाग कर लाल किले के रेलिंग्स के पीछे छुप रही थी। कुछ जगह तो यह भी दिखा कि ट्रेक्टर चालक दंगाई-ट्रेक्टर से पुलिस को कुचलने की कोशिश कर रहा था। वहाँ दर्जनों पुलिस में से किसी के पास इतना हिम्मत नहीं था कि ट्रेक्टर के पीछे से चढ़कर ऐसे हिंसक चालकों को बस में करने की कोशिश करे। डेढ़ सौ से ज्यादा पुलिस कर्मी ज़ख़्मी हुए। किसी को लाठी से मार पडी थी तो किसी को तलवार से। महिला पुलिस कर्मियों तक को नहीं बक्शा उन दंगाइयों और आतंकियों ने। वह री दिल्ली पुलिस। दंगे की स्थिति में आप तो शान्ति की मूरत हैं। क्या यही ट्रेनिंग आपको मिलती है ? हमने जितने भी दृश्य देखे, अधिकांश कल्पना से परे थी कि क्या एक देश के राजधानी की पुलिस इतनी निकम्मी भी हो सकती है ? शर्म आनी चाहिए ऐसी संस्था को। लेकिन इसमें सारा दोष उनका ही नहीं है। कई बार उनके हाथ बाँध दिए जाते हैं। कुछ साल पहले की ही बात है कि दिल्ली के ही वकीलों के साथ उनकी झड़प में पुलिस कर्मियों को अपने ही अधिकारियों ने साथ नहीं दिया था जिसके फलस्वरूप उन्हें अपने ही अधिकारियों के खिलाफ प्रदर्शन पर उतरना पड़ा था।

यह भी मानने वाली बात है कि कभी कभार दिल्ली पुलिस पर अत्यधिक राजनैतिक दवाब रहता होगा। हो सकता है कभी ऐसा आदेश भी आता हो कि अमुक अपराधी अमुक राजनितिक पार्टी का है इसलिए कार्यवाही नहीं करनी है। यह भी हो कि किसी संवेदनशील मौके पर कोई कड़ी कार्यवाही न करने की सलाह मिली हो। गत गणतंत्र दिवस पर भी शायद ऐसी ही कोई सलाह दी गयी हो, संभव है। अपने ही देशवासियों, किसानों पर गोली न चलाने का आदेश दिया गया हो, संभव है। लेकिन बिना गोली चलाए, बिना हताहत किए भी उग्र भीड़ पर संयम किया जा सकता था। बस कुछ सौ उद्दंड किसानों को हिरासत में लेकर, उनके ट्रैक्टर्स जब्त कर, दंगा पीड़ित इलाके में अल्पकालीन कर्फ्यू लगाकर... हालात को काबू में किया जा सकता था। पुलिस के पास ऐसे कितने ही साधन हैं जिनसे हालात पर काबू किया जा सकता था। 'प्लान बी या सी' का होना अत्यावश्यक था। इन उपायों के लिए दिल्ली पुलिस महानिदेशक को गृह मंत्री के पास जानें की शायद आवश्यकता भी नहीं पड़ती। इसलिए पुलिस से चूक हुई है इसमें कोई शक नहीं।

हर देश की क़ानून व्यवस्था वहाँ के पुलिस के हाथ होती है। फिर गणतंत्र दिवस वाली जैसी स्थिति में अगर पुलिस निकम्मी निकले तो आम नागरिक क्या करे ? पुलिस-तंत्र के हाथों में चूड़ी पहनाकर क़ानून अपने हाथों में ले ले ? दिल्ली देश की राजधानी है। यहाँ दसियों हज़ार अर्धसैनिक बल व पचास हज़ार से ज्यादा सेना है। फिर स्थिति को नियंत्रण में लाने में इतनी ढिलाई क्यों ? क्या गृहमंत्री अमित शाह कायर और डरपोक हैं ? ऐसा किसी भी तरह नहीं लगता। फिर उनकी ये बावसी क्यों ? क्या प्रधानमंत्री मोदी ने उनके हाथ बाँध रखे हैं ? यह तो कल्पना के परे है। क्या देश के गृह राज्य मंत्री कृष्ण रेड्डी और नित्यानंद राय निकम्में हैं ? तो उन्हें मंत्रीमंडल से निकाला जाय। क्या गृह सचिव नकारा है ? लगता तो नहीं। फिर एक चुस्त दुरुस्त प्रशासन में चूक कहाँ हो रही है ? समय रहते इन सारे पहलुओं पर विचार करना होगा। देश के दुश्मन चाहे पाकिस्तान हो या चीन, ऐसी ही अनहोनी घटनाओं की ताक में हैं। गृह मंत्री जागें और समस्याओं का निराकरण करें।

दिल्ली में पर्याप्त आपराधिक मामले आते रहते हैं। धोखाधड़ी, चोरी, ह्त्या, बलात्कार, आतंकवाद यहाँ आम बात है। देश की राजधानी होने के वजह दिल्ली में इतने अधिक आपराधिक मामले अस्वीकार्य हैं। विश्व के बहुतेरे शहरों और राजधानियों के वनिस्पत यहाँ की पुलिस अकुशल और अव्यवसायिक है। दिल्ली में जहाँ एक ओर मामूली चोर या गुंडा भी घातक हथियार लेकर चलता है वहाँ एक निहत्था या लाठी लिए पुलिस क्या का लेगा ? उसे तो अपनी जान पर ही बनी रहेगी। पुलिस की अकर्मण्यता के लिए एक और कारण है पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार ! पुलिस के कितने ही सेवा निवृत्त अधीक्षक कह चुके हैं कि भारत की पुलिस तंत्र भ्रष्टाचार से जर्जर है। यह घुन की तरह पुलिस तंत्र को खोखली करती जा रही है। यह भ्रष्टाचार इसलिए आ रही है कि लगभग हर पुलिस को अपनी भर्ती के समय अधिकारियों को घूस देना पड़ता है। हर हाई प्रोफाइल तबादले और पदोन्नति के लिए मोटी रकम भरनी पड़ती है। उनका बेतन तो ऐसे ही कम होता है। फिर हर पुलिस वाला घूस लेकर अपनी आस्था गिरवी न रखे तो क्या करे ? लेकिन ऐसी कोई भी दलील पुलिस का निकम्मापन को उचित नहीं ठहरा सकता। भारत को एक चुस्त दुरुस्त पुलिस रखना ही होगा अन्यथा बाहरी संकट की घड़ियों में हमारी आतंरिक क़ानून व्यवस्था ही हमें धोखा दे जाएगी और देश के अंदरूनी दुश्मन ही हमारे लाल किले पर दुश्मन का झंडा फहरा जाएंगे और हमारी पुलिस देखती रह जाएगी।

एक कामयाब पुलिस के लिए यह आवश्यक है कि वो ईमानदार हो। वो शारीरिक रूप से सक्षम हो और उपयुक्त हथियार से सुसज्जित भी । उसे सेना की तरह ही निडर रह कर सेवा करनी होगी अन्यथा वे पुलिस फाॅर्स में में शामिल न हों। उसे निष्पक्ष रहना होगा। अपराध कम या उन्मूलन के लिए उनका उचित प्रशिक्षण हो। तभी पुलिस कामगार हो सकती है। मोदी सरकार ने तो सशत्र सेना के लिए इतना कुछ किया है। अब उनसे पूरे देश की अपेक्षा है कि पुलिस को भी आधुनिक बनाएँ।

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