पिशाची किताब
आज पूरे संसार में अफगानिस्तान चर्चा का विषय बना हुआ है। स्वाभाविक ही है:-
“अवहेला कर सत्य-न्याय के शीतल उद्गारों की,
समझ रहा नर आज भली विध, भाषा तलवारों की।“(कुरुक्षेत्र)
बौद्ध धर्म के विस्तार की दृष्टि से ईरान, अफगानिस्तान, अविभाज्य भारत, म्यांमार, बांग्लादेश, तिब्बत वगैरह तथा अनेक कई पूर्वी देश और दक्षिण द्वीप भी भारत के बौद्धिक सूत्र में बंधे रहे हैं । हिमालय की चोटी से समुद्र के सभी दक्षिणी भूखण्ड पर सनातन वैदिक धर्म और संस्कृति का विस्तार था।सनातन वैदिक धर्म जीव-जंतुओं, मनुष्यों, प्रकृति की स्थूल-सूक्ष्म तथा नैतिकता की सुरक्षा की दृष्टि से सभ्यता के विकास के साथ ही इस पृथ्वी से जुड़ा हुआ था । अभी भी सिर्फ यही पुरातन धर्म-संस्कृति सबसे ज्यादा सत्यापित और वैज्ञानिक भी है। जैन, बौद्ध, सिख्ख, लिंगायत जितने भी धर्म इस पुण्यभूमि पर सभ्यता के साथ विकसित हुए वहाँ प्रकृति-पुरुष, स्त्री सम्मान, वेदों तथा वेदवेत्ता ब्राह्मणों को स्वाभाविक रूप से सम्मानित किया गया है। इन धर्मों में उदारता, बहुदेववाद, अद्वैत तथा द्वैत को भी मान्यता दी गयी है जिसकी व्यख्या के लिए या गहराई से समझने के लिए चार वेद, अट्ठारह पुराण, उपनिषद, तैत्तरीय,जैन-बौद्ध धर्म ग्रंथ, बश्वेश्वर के ग्रंथ आदि बहुत-सी पुस्तकें उपलब्ध हैं।
फिर दो हज़ार साल पहले ईसाइयत के प्रचार के साथ आत्मचिंतन की प्रवृत्तियों को नजरअंदाज कर समष्टिगत विचारों को प्रधानता प्रदान की गई जिसके अंतर्गत व्यष्टियों की महत्ता नगण्य थी। एक शक्तिशाली संगठित संघ के रूप में ईसाइयत का उदय हुआ जिसने पृथ्वी पर धूर्तता-क्रूरता द्वारा विस्तारवादी विचारधारा प्रसारित करने का कार्य किया। वैदिक धर्म जहाँ स्वेच्छा से अपनाया गया नैतिकता से जुड़ा रहा वहीं ईसाइयत साम्राज्यवाद की भावना के साथ फैलाया गया। मूसा के विचारों को अग्रसर करने वालों में से ईसाईयों की विचारधारा से हट कर पैदा होने वाला इस्लाम क्रूरता का पर्याय बन गया। लूट-हत्या-बलात्कार द्वारा सम्पूर्ण मानव समाज को इस्लामी और ग़ैरइस्लामियों में बाँटने वाला, 'पिशाची किताब' को पढ़ने वाले ये जाहिलों के ‘जमाती समूह’ लूटे हुए धन से अमीर तो हो गए परंतु सभ्यता इन्हें छू भी नहीं पायी है। स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना तो दूर ये उन्हें भोग की वस्तु तथा पिशाचों की फौज को पैदा करने वाली जमीन समझते हैं। स्त्रियों को बुरके में कैद रखना, उन्हें मजहबियों के लिए शारीरिक संतुष्टि का साधन समझना सिर्फ इसी मझहब में मौजूद है।
पिशाची किताब पढ़ कर अल्लाह के नाम पर पापकर्मों को करने वाले मझहब में चाचा, भाई, ससुर, मौलाना किसी के साथ भी, यहाँ तक कि पिता के साथ शारिरिक संबंध बनाना जायज़ ठहराया है। स्त्रियों को पीटना, गोद ली गयी पुत्री से विवाह, मुत्ताह(सुन्नी) तथा अन्य अस्थायी-विवाह कुछ अन्य प्रकार से स्त्रियों का शारिरिक तथा मानसिक शोषण जिस मझहब में कानूनी तौर पर सही ठहराया गया हो, वहाँ बुर्के के रूप में पर्दा किस काम का है? इन मझहबी पुरुषों की विकृतियों से परिपूर्ण गन्दी मानसिकता उन्हें स्वयँ को सभ्य न बनाने के कारण जहिलता से ग्रसित है। अपनी विकृत मानसिकता को बदलने के स्थान पर ये सारे दोष स्त्रियों पर थोपते हैं। अपनी क्रूर प्रवृत्तियों को स्त्रियों पर थोप, उन्हें गुलामी और बेबसी की जंजीर में जकड़ कर उन्हें असहाय बनाते हुए उनका शोषण करते हैं। इनके पिशाची किताबों के तालीम ने इन्हें जंगली जानवरों तथा लक्कड़बग्घों या गिद्धों से ज्यादा घृणित और पतित बना दिया है। आधुनिक इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में भी ये न तो जहिलता-क्रूरता का त्याग कर पाए हैं न ही पढ़ाई-लिखाई कर अमीर बनने के बाद भी ये सभ्य बन पाए हैं।
ये क्रूर-जाहिल पहले ग़ैरइस्लामियों को खत्म करने की चाहत रखते हैं जो प्रायः सभी इस्लामिकों के देशों में पूर्ण हो चुका है। परन्तु अब इनकी रक्तपिपासु बर्बरता किस पर अपनी जहिलता प्रदर्शित करेंगे ? स्वाभाविक है अपने मज़हबियों पर ही करेंगे।
सीरिया, इराक और कई इस्लामिक देशों में ये ध्वंसात्मक कृत्य हो भी रहा है। मज़हबियों के 'पिशाची किताब' की तालीम देने वाले, तालीम लेने वाले पापकृत्य, बर्बरता, क्रूरता, छुद्र पशुप्रवृति से तब तक उबर नहीं सकते हैं जब तक इस किताब को या इसमें में निहित पाप कृत्यों को कुपोषण समझ, स्वयँ ही इसका परित्याग न कर दें। यहाँ उन्हीं के एक शायर का कथन है-
'धूल चेहरे पर थी।ताउम्र आईना साफ करते रहे।'
ये तो उन्हीं पर निर्भर करता है कि वे क्या चाहते हैं? आईना साफ करना या चेहरा साफ करना? जहिलता कि हदें पार कर खूंखार जानवर बने रहना, स्त्रियों, बच्चों को मानसिक रूप से गुलाम और खूंखार लक्कड़बग्घों या राक्षस-राक्षसी बनाना या स्वयँ भी सभ्य बन अपने परिवार को सभ्य और उदार इन्सान बनाना?
ये यहाँ के उन मुसलमानों के लिए भी चिंतन का विषय है जो कई पीढ़ियों पूर्व इस्लामी बलात्कारियों, अत्याचारियों के चंगुल में फँस कर, लोभ या मौत के डर से अपना सभ्य उदार स्त्रियों को सम्मानित करने वाला, इंसानियत का शुभचिंतक सनातन वैदिक हिन्दू धर्म को त्याग कर इस्लाम को आत्मसात कर, पिशाची किताब के संदेशों को अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा बना चुके हैं। सच्चे इंसानियत के संरक्षक अपने उन पूर्वजों को भी याद कर, उन्हें सम्मान देने की इजाजत भी मज़हबियों को नहीं है। हँसी आती है जब ये ‘इस्लाम खतरे में है’ या ‘पैगम्बर का अपमान सहन नहीं होगा’ के नारे लगा, तोड़-फोड़, आगजनी करते हैं । वस्तुतः इस्लाम अपनाकर जिसे ये सम्मान दे रहे हैं, वे प्रायः उनके पूर्वजों को कत्ल करने वाले, उनकी स्त्रियों को जबरन सेक्स-स्लेव बनाने वाले, बर्बरतापूर्ण ढँग से अत्याचार कर उनसे इस्लाम कबूलवाने वाले रेगिस्तानी खानाबदोश-लुटेरे-दरिंदे थे। आज ग़ैरइस्लामियों को चबाने की चाहत रखने वाले दरिन्दे कल अपनी बहू-बेटियों को भी चबायेंगे, जो असम बंगाल आदि में हो भी रहा है, क्योंकि पिशाची किताब की तालीम इन्हें बिना पाप-बोध के घृणित से घृणित पापकृत्यों को करने की ताबीज़ तोहफे में देती है। इसलिए चिंतन करें:-
"इससे बढ़ कर मनुज-वंश काऔर पतन क्या होगा?
मानवीय गौरव का बोलो, और हनन क्या होगा।“ (कुरुक्षेत्र)