पाप-शाप और राक्षस
हमारे पौराणिक ग्रन्थों में भले हिन्दू या हिंदुत्व शब्द की चर्चा कहीं नहीं हो परन्तु धर्म और अधर्म को विभिन्न लघु-कथा एवं घटनाओं द्वारा बताया गया है। कुछ हास्यपद एवं रोचक तथ्य कहानियों में जिस तरह पिरोए गए हैं वे लेखन कला में चार चाँद लगा देते हैं। वैदिक ऋचाओं तथा पौराणिक कहानियों से यह सत्य प्रतिपादित है कि दुनियाँ में सनातन वैदिक धर्म-संस्कृति-सभ्यता का विस्तार बहुत बड़े भूभाग पर था तथा इसके अलावे अन्य कोई भी धर्म-संस्कृति-सभ्यता संसार में नहीं थी। समयान्तराल में विकसित जैन, बौद्ध, सिख्ख आदि मानवतावादी उद्दात्त विचारों को प्रतिपादित करते हुए, उदार,सहयोग, दया तथा शांतिपूर्ण वातावरण को बनाये रखने, मानव उत्थान हेतु ही विकसित हुए हैं। इन सभी धर्मों में लूट-पाट, आगजनी, हत्या, बलात्कार, घृणा-पोषण, परधन अवशोषण, भ्रष्टाचार, परस्त्रीगमन, स्त्रीहरण एवं हिंसात्मक व्यवहारों को पाप माना गया है। बाली ने जब राम से अपना अपराध पूछा तो रामचंद्र ने सहज बानी में कहा था --
"अनुज बधू,भगिनी, सुतनारी।सुनु सठ कन्या सम ए चारी।
इन्हेहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई।ताहि बधे कछु पाप न होई।"
पुराणों में वर्णित सारे पाप कृत्य इस्लामी मज़हबी समाज में सहजता से स्वीकृत हैं। ग़ैरइस्लामियों की औरतों को विभिन्न अमानवीय तरीकों से अपमानित कर उनके साथ अनाचार, दुर्व्यवहार,बलात्कार आदि कुकर्म करते हुए इन्हें न शर्म आती है, न ही इन्हें स्वयँ से या अपने दुष्कर्मों से घृणा होती है। ग़ैरइस्लामियों की अकारण हत्या करना तो इन जाहिलों के लिये इनके मझहब में जन्नत में इन्हें हूरों को प्राप्त करने का ही साधन है। कई तथ्यों के आधार पर इस्लाम-अनुयायी समूह को क्रूर-राक्षस-मझहबी अधर्मी तो कहा जा सकता है लेकिन इस्लाम को धर्म कहना सर्वथा अनुचित ही होगा। कथाओं के आधार पर ऐसे उदाहरण पौराणिक पुस्तकों में भरे पड़े हैं।
रामायण में जहाँ राक्षसीप्रवृतियों वाले राक्षसों का संहार किया गया है वहीं महाभारत का युद्ध धर्म स्थापना के लिए अधर्म पर चलने वालों तथा अधर्म समर्थकों के संहार का महाकाव्य है। इन महान ग्रंथों में युद्ध; आत्मरक्षा,गौरक्षा, स्त्रीरक्षा,साधुसंतों एवं अबोधों की रक्षा तथा मानव कल्याण के निमित्त राक्षसीप्रवृतियों से ग्रसित आतताइयों के सँहार लिए,युध्द आखिरी विकल्प के रूप में प्रस्तुत है।
अत्यंत रोमांचक तथ्य ये भी है कि पौराणिक कहानियों में ऋषियों के श्राप से ही अनैतिक कार्य करने वाले जीव- जंतु,साधु,मुनि,ज्ञानी,मनुष्य जो अकारण ही किसी को कष्ट देते थे; राक्षसों तथा अन्य पशु योनि में पैदा हुए हैं।
इस तथ्य की चर्चा शिव-पार्वती संवाद में है जहाँ कुकर्मियों द्वारा साधू जनों को अकारण ही भयग्रसित(अशुभ वेशभूषा या ताड़ना द्वारा) करने के कारण, क्रूर एवं पाप प्रवृतियों में लिप्त राक्षस बनने का श्राप मिला था।
" ऋषि अगस्त की शाप भवानी,
राक्षस भयउ रहा मुनि ज्ञानी"
धार्मिक कार्य में रत स्त्री एवं अबोधों की रक्षा करने वाले, जीवन का त्याग करने वाले पशु-पक्षी भी आदर एवं पूज्य माने गए हैं जैसा कि बानर, भालू, गिलहरी तथा गिद्ध जटायु के लिए तुलसीदास के उद्द्गारों में प्रस्तुत है।
"गीधराज सुनी आरतबानी।रघुकुल तिलक नारि पहचानी।
अधम निशाचर लीन्हें जाई।जिमी मलेक्ष बस कपिला गाई।"
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"धावा क्रोधवंत खग कैसे।छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे।"
...........'सुनत गीध क्रोधातुर धावा'
...........'चोचन्ह मार बिदारेसि देहि।'
स्त्रीहरण हेतु अपने सुकर्मों के कारण ही माँसाहारी जीव गिद्ध भी आदरणीय और देवतुल्य हो गए हैं।
गिद्ध के पार्थिव शरीर का पिता की भाँति सम्मान सहित अंत्येष्टि कर्म करते समय रामजी के भावविभोर वक्तव्य निम्न प्रकार से हैं।
'जल भर नयन कहहिं रघुराई।तात कर्म निज तें गति पाई।
पर हित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।.......
धर्मयुक्त कर्म के कारण गिद्ध को गिद्ध के शरीर से न सिर्फ मुक्ति मिली बल्कि उन्हें देवस्वरूप देवतुल्य सम्मान भी प्राप्त हुआ।....
...'गीध देह तजि धरि हरि रूपा।भूषण बहुपट पीतअनूपा।'
....….इसी प्रकार रामायण में कई राक्षस और राक्षणियों का जिक्र है जिन्हें शापमुक्ति के बाद राक्षस योनि से छुटकारा मिल गया है। इनमें से कई राक्षसों को पता था कि वे किसके हाथों मारा जाकर अपने वर्तमान राक्षसी प्रवृतियों के पापयुक्त अशुभ शरीर से मुक्ति पाएंगे।
स्थूलशिरा महर्षि के शाप से राक्षस बना कबन्ध लंबे समय से अपनी मुक्ति के लिए भगवान विष्णु के मनुष्य अवतार,राम-लक्ष्मण की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि उनके हाथों अग्निहोत्र अंत्येष्टि के पश्चात वह सुंदर स्वरूप में स्वर्गलोक जा सके।
उसी प्रकार हनुमान की परीक्षा लेने वाली सुरसा, छाया को हस्तगत कर नभचरों का शिकार करने वाली सिंहिका तथा लंकिनी भी शाप मुक्ति के लिए हनुमान की पतिक्षा कर रही थी।
लंकिनी को शक्तिमद में चूर चरम पाप की पराकाष्ठा पर पहुँचने वाले रावण,उसके परिवार एवं अन्य पापी राक्षसों का, उसकी सुवर्ण नगरी लंका के सर्वनाश-समय का भी ज्ञान था।
"जब रावण ब्रह्म वर दीन्हा।चलत बिरंचि कहा मोहि चिन्हा।
बिकल होसि तैं कपि के मारे।तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुण्य बहूता।देखेउँ नयन राम कर दूता।।"
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"तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।"
.... अब प्रश्न ये उठता है कि राक्षसीप्रवृतियों वाले जिहादी मुस्लिम राक्षसों को अपने पापकर्मों से शापित महाराक्षस की गुलामी से तथा उसके द्वारा बनाये गए और थोपे गए मझहब से कब मुक्ति मिलेगी ? कब वे सतसंग आत्मसात का पुण्यात्मा इन्सान बन जायेंगे जैसे कि आजकल वसीम रिजवी बन गए हैं।
यूँ कुछ दोष तो क्रोधी ऋषियों का भी बनता है जिनके श्रापों के कारण विभिन्न प्रकार के भयंकर-भयंकर राक्षस इस देव-भूमि आर्यावर्त में अबोध मनुष्यों साधु-संतों का नरसंहार करने तथा स्त्रियों की मान-मर्यादा का सर्वनाश करने के लिए पैदा होकर पसर गए हैं।