सम्पादकीय : "आज के जरा और जरासंध"
एक कहावत है "जे न महाभारते, ते न भारते” I अर्थात जिस कथा का वर्णन महाभारत में नहीं है वह भारतवर्ष में ही नहीं है।यह कहावत आर्यावर्त के समय के संदर्भ में कही जाती है जब सनातन धर्म ही सम्पूर्ण पृथ्वी के सभ्य समाज के मनुष्यों में, उनके क्रियाकलापों द्वारा दैनिक जीवन-यापन पद्धति में स्वाभाविक रूप से व्याप्त थे। श्रुति के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित विभिन्न वेदों-पुराणों-उपनिषदों की कथाएँ हमारी ऐतिहासिक धरोहर के रूप में कहीं मंदिरों की दीवारों-चट्टानों पर मूर्ति लिपि में, कहीं गुफाओं में चित्रलिपि में तो कहीं ताम्रपत्रों पर अनेक आतताइयों के ध्वंसात्मक कुकृत्यों को झेलने के बावजूद भी जहाँ-तहाँ दृष्टव्य होते हैं।ये कथाएँ हमारे गौरवशाली इतिहास की झलक देने के साथनीति, राजनीति, विदेशनीति, अर्थशास्त्र, तर्कशास्त्र, चिकित्सा-शास्त्र, स्वधर्म, धर्म, अधर्म, राष्ट्रधर्म आदि अनेक अनगिनत तथ्यों के गूढ़ ज्ञान पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं।
'व्यास' रचित महाकाव्य 'महाभारत' की मूलकथा अपने साथ अनेकानेक व्यक्तित्व की कथानकों को स्वयँ में समेटे निरंतर नदी की तरह प्रवाहित पृथ्वी के विस्तृत क्षेत्र को जलप्लावित करती चली जाती है।इन कथाओं में एक कथा 'जरासन्ध' की है। जरासन्ध ‘वृहद्रथ’ नामक राजा के दो रानियों से उत्पन्न पुत्र था। पुत्रेक्षा कामना यज्ञ के पश्चात राजा को जिस फल की प्राप्ति हुई थी उसे उन्होंने दो टुकड़े कर, दोनों रानियों को दिया था।
समयांतराल में गर्भ-धारण, प्रसव के पश्चात रानियों ने देखा कि उन्होंने अर्द्ध शरीर के भयानक माँसल-पिण्ड को ही जन्म दिया है। दुःख और भय से काँपती रानियों ने उसे दासियों के द्वारा महल से बाहर फिंकवा दिया। कहानी के अनुसार उसी समय 'जरा' नामक राक्षसी माँस-भक्षण की चाह लिए, खोजबीन करते हुए अर्धशिशु के माँसल-पिण्ड के पास से गुजरी I खाने के लिए दोनों अर्ध माँसपिण्ड के टुकड़ों को ज्यों ही इकट्ठा रखा कि वे आपस में जुड़ कर जीवित पूर्णनव शिशु की तरह रोने लगा। जीवित शिशु को 'जरा' ने उसके पिता राजा 'वृहद्रथ' को सौंप दिया। 'जरा' नामक राक्षसी द्वारा जीवन दान दिए जाने के कारण ही वृहद्रथ के इस अनोखे पुत्र का नाम 'जरासंध' रखा गया था, जिसमें अप्रतिम बल होने के साथ-साथ राक्षसी प्रवृत्तियों का अकूत भंडार था।
जरासन्ध और कंस दोनों ही क्रूर, छली,अत्याचारी तथा वीभत्सता के दुर्गुणों से ओतप्रोत थे। ये बलप्रयोग द्वारा अकारण ही बहुत से कमजोर राजाओं के राज्यों का बलात अधिग्रहण कर उन्हें कारागार में कष्ट देने का कुकर्म करते हुए आनंदित होते थे। जामाता कंस की मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण से उसकी स्वाभाविक दुश्मनी थी, साथ ही अपूर्व बल एवं लूट के अकूत धन का स्वामी होने के कारण अत्यंत घमंडी भी था।
श्रीकृष्ण के राज्याभिषेक से साधु-संतों में व्याप्त संतोष और सुरक्षा की भावना ने जरासन्ध की क्रूरता के भय से त्रस्त समाज को भी आशावादी, धर्मपथ गामी बना दिया था, जो जरासन्ध तथा उनके कुटिल परामर्शदाताओं के लिए असह्य था।
आज के राजनीतिक संदर्भ में ये कथा सत्य है या मिथक, कहना कठिन है, परन्तु सटीक अवश्य है। बहुतायत, विशृंखलित, आरोप-प्रत्यारोपण करने वाली लुटेरी, रक्तपान, माँस-भक्षण करने वाली पार्टियाँ जो जरासन्ध के माँसल पिण्ड की तरह बिखरे हुए अपनी जनता-जन्मदात्रीयों को भी भयाक्रांत करने के कारण तिरस्कृत की गई हैं, 'जरा' नामक राक्षसी द्वारा जोड़ दी गयी हैं I इन सभी कुटिल पार्टियों का मुख्यध्येय भी कुकर्म प्रेमी जरासन्ध के ध्येय की तरह ही क्रूर एवं कुपथ गामी है। भ्र्ष्टाचार एवं लूट से अर्जित धन तथा क्रूरनीति का उपयोग ये राष्ट्र तथा राष्ट्र-प्रेम की भावना को कुचलने, अराजकता वादी तत्वों को बढ़ावा देने के लिए कर रहे हैं। सामान्य जनों के हृदय में 'जरा' राक्षसी द्वारा जोड़े गए राक्षसी-वृत्ति वाले माँस पिंडों का गठबंधन सरकार का ध्येय मात्र देशविरोधी गतिविधियों को कार्यान्वित कर, साधुओं और हिन्दुओं की हत्या करवानी है। महाभारत काल में धृतराष्ट्र की महत्वाकांक्षा का पर्याय दुर्योधन, सत्ते की चाहत में सम्पूर्ण कुरुवंश के गरिमा-गौरव को समाप्त कर निरपराधों की हत्या का जिम्मेदार बना था। कृष्ण का धर्मपथगामी पांडवों के प्रति स्नेह के कारण उन्हें भी गालियाँ खानी पड़ी थी, धमकियाँ झेलनी पड़ी थी।आज भी जब कांग्रेसियों की अधर्मी, भ्रष्टाचारी जमात अपने गठबंधन वाली सहयोगी पार्टियों के साथ जरासन्ध बन कर घृणास्पद बयानबाजी, निरपराधों की हत्याएं, कुपथगामियों का बचाव करती है तो लगता है कि महाभारत दुहराया जा रहा है।अधर्मी का साथ न देने के कारण कृष्ण तथा उनके समर्थकों को भी अपमानित होना पड़ा था परन्तु पापियों को सजा देने से पूर्व या शिशुपाल का गर्दन काटने से पूर्व कृष्ण द्वारा उन्हें चेतावनी भी दे दी गयी थी।
आज के राजनीतिक हत्यायों की विभीषिकाओं के बीच कृष्ण तो जन्म लेने वाले नहीं हैं, परन्तु राक्षसों के प्रवृत्तियों के पोषक बहुत से अपराधी, क्रूर-नेता, पापी पार्टियाँ हैं जो हमारे ऐसे अर्धजागरूक जनता-जनार्दन रूपी माताओं द्वारा पैदा की गई हैं।जरासन्ध के अनेक टुकड़ों को 'जरा' नामक राक्षसी द्वारा जोड़ कर भयानक अत्याचारियों की 'टी एम सी', 'कांग्रेस', 'सपा', 'बसपा' 'आप' तिघड़ी, आदि की सामान्य भ्रष्टाचार में लिप्त मानसिकता वाली अन्य पार्टियाँ भी आज धर्मपथ गामी कृष्ण के विरुध्द खड़े हो गए हैं।सामान्य जनता क्षुब्ध और प्रताड़ित है।आज आवश्यता है कि स्वधर्म, देशधर्म, मजबूत राष्ट्र की रक्षा हेतु इन क्रूर, धूर्त, भ्रष्टाचारी, हत्यारे, लुटेरोंऔर रंगबदलु नेताओं तथा उनकी पार्टियों का साधुजन पूर्ण परित्याग करें अन्यथा 'जरा' नामक राक्षसी विभिन्न प्रान्तों में कई रूपों में कहीं इतालिया, कहीं ममूता,कहीं घुँघरूवाल, तो कहीं फुफती के रूप में आएंगी और उसका अगला निवाला आप भोली-भाली जनता होंगी जैसा कि दिल्ली, बंगाल, पूर्णियाँ के महादलित मोहल्ले में तथा कुछ अन्य जगहों पर भी हो रहा है।खेला होने के नाम पर यदि इतनी हत्यायें हो रही हैं तो ये सत्ता में रहने वाली ऐसी पार्टियाँ जनता पर किस हद तक और कितने तरीके से अत्याचारों को क्रियान्वयन करती होंगी, यह सोचने का विषय है।