बिहार कहाँ था, कहाँ है और कहाँ जा रहा है ?
अधेड़ और उससे कम उम्र के "लालू, तेज और तेजस्वी" के चाटुकार और चापलूस अपने आक़ा की बातें दुहराते कहते हैं बिहार में कुछ नहीं बदला है। आज के सोशल मीडिया में यह एक नियम बन चुका है अपने मालिक की विचारधाराओं को आवाज देना। किसी भी 'पारिवारिक' राजनैतिक दल के लोगों की तो यह मजबूरी बन गयी है। अक्सर उनसे हिसाब लिया जाता है कि कितनी बार उसे पोस्ट किया। हो सकता है उनमें से कुछ लोगों ने अपने छोटे से उम्र में जो भी देखा है, शायद व्यक्त कर रहे हों लेकिन वह भी सही नहीं है। क्योंकि अभी हाल के 10-15 सालों में बिहार में भी बहुत कुछ बदला है जिनमें से कुछ तो अच्छे के लिए हुआ पर कुछ का बुरा असर भी पड़ा है।
बिहार की राजनीति
सन १९५० के दशक में बिहार की अच्छी स्थिति थी, देश के अग्रणी और प्रगतिशील राज्यों में गिनती होती थी। राज्य में शान्ति और स्थिरता थी, राजनितिक गिद्ध बहुत कम थे। १९६१ से राजनैतिक उठा-पटक शुरू हुई और ३० सालों तक चलती रही। स्वतन्त्रता के पश्चात ४३ सालों में अल्पकालीन 'जन क्रांति, शोसलिस्ट व जनता पार्टी' के छिट-पुट सत्ता परिवर्तन को छोड़, कांग्रेस का ही साशन था लेकिन सभी भ्रष्ट नेताओं ने मिलकर बिहार को अँधेरे में धकेल दिया था।अब बिहार की गिनती १९९० में भारत के पिछड़े राज्यों में होती थी। विकास रुक चुकी थी, सिंचाई और उर्वरक के अभाव में कृषि, जो बिहार का मुख्य व्यवसाय रहा है, चौपट हो चुका था। मेधावी शिक्षकों के सेवानिवृत होने के बाद नयी पीढ़ी के शिक्षकों में गुणवत्ता की कमी थी जिससे बिहार की शिक्षा प्रणाली पर बहुत बड़ा कुठाराघात हुआ। कर्पूरी ठाकुर ने तो अंगरेजी फेल करने वाले विद्यार्थियों को मैट्रिक पास करने का नियम ही बना दिया। उनहोंने शिक्षा का स्तर ही घटा दिया। बाँकी रहा सहा आरक्षण ने समाप्त कर दिया। शिक्षकों का स्तर घटने से शिक्षा व्यवस्था की मानो कमर ही टूट गयी। भ्रष्टाचार का बोलबाला होता गया। जीडीपी और वैयक्तिक आय घटती गयी। बिहारियों का जीवन-स्तर पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा।
जयप्रकाश आंदोलन बिहार के उन्नति के तो किसी काम नहीं आया बल्कि ह्रास ही किया। उस आंदोलन में एक गरीब परन्तु सशक्त युवा छात्र नेता सामने आया 'लालू प्रसाद यादव'। आंदोलन के दिनोंं उनके आगे-पीछे करते उसकी गाड़ी चल पडी, किस्मत का ताला खुल गया । नव निर्मित जनता दल में उसे काम और दाम मिला। उसमें राजनैतिक प्रतिभा तो थी ही उसे बिहार बागडोर दे दिया गया।
बिहार मुख्य मंत्री बनने के बाद उसने साशन प्रणाली को दुरुस्त करने की कोशिष भी की। १९८५ के चुनाव में ही उसने अपने निर्वाचन क्षेत्र में मुसलिम-यादव का एक चुनावी समीकरण शुरू किया जो काफी प्रभावी रहा था। अच्छी-अच्छी बातें करता था। यादव और मुसलामानों के लिए तो उसने बहुतेरे प्रावधान किए। यादव या मुसलमान जिस भी नौकरी के लिए साक्षात्कार में जाते, चुना जाना लगभग तय माना जाता था। बाद में उनहोंने पीढ़ियों से उपेक्षित पिछड़ी जाति को भी अपनी मुस्लिम यादव समीकरण में शामिल कर लिया जो अच्छा कदम था।
अब लालू का चुनावी जनाधार काफी बढ़ चुका था। दूसरी जातियों के लिए धीरे धीरे समस्याएँ आने लगी। बहुतों जमींदारों के जमीन जोत रहे कुछ खेतिहरों को उन जमीन के पट्टों का कब्जा मिलने लगा। पिछड़ी जाति को कानूनी रूप से सशक्त किया गया लेकिन उच्च वर्ग की अवहेलना होने लगी। बिहार में ब्राह्मण या राजपूत होना अभिशाप बनने लगा। कुछ ब्राह्मण ने अपने जाति नाम रखने बंद कर दिए। उच्च जाति के गरीबों की तो मानो शामत आ गयी थी। बिना मोटी रिश्वत के नौकरी नामुमकिन सा हो गया। अब बिहार में एक नया वर्ग-कटुता बढ़ने लगा। उच्च वर्ग के सशक्त लोगों ने अपनीं एक निजी रणवीर सेना बना ली जो पिछड़ी जाति द्वारा किया जानें वाला अतिशयो को रोक सके लेकिन जल्द ही बहुत सारे ऐसे मामले आने लगे जिसमें रणवीर सेना ने पिछड़ी जाति पर हमला किया था। अब बिहार में जातिगत वर्ग कटुता एक वास्तविकता हो गयी थी जिसमें यादवों और मुसलामानों का दबदवा था। इनके पास अवैध बंदूकें थीं साथ में लठैत भी थे और बाद में इन्होंने पैसे वाले लोगों को अगवा कर फिरौती वसूलने का धंधा भी शुरू कर दिया। यादवों का अत्याचार इतना बढ़ गया था कि तत्कालीन 'लल्लू राज्य' की कुव्यवस्था को दिखाने के लिए फिल्म निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा को "गंगाजल" बनानी पडी थी। सवर्ण, अमीर और व्यापारी वर्ग डरे सहमें रहते थे और देर-सवेर बाहर निकनें से कतराते थे।
अब लल्लू बिहार का बादशाह था। भ्रष्टाचार में लिप्त, अपनीं मनमानी करता था। अब लल्लू के बहुतेरे यादव लठैत, अंडरवर्ल्ड के बन्दूक और पिस्तौलधारी मुसलमान और बाएँ दाएँ फिरौती गैंग थे। वह घोटालों पे घोटाले करने लगा और आवाज़ निकालनें वालों के मुँह बंद कर देता। उसने चांदी के जूते और पैसे के बल, पैरवी करनें के लिए कई चाटुकार रख लिए थे। बाँकी आगे पीछे करने और प्रवक्ता के तौर पर कुछ ऊँची वर्ग के भी लोग रख लिए जिनमें कुछ विद्वान् भी शामिल थे I कुछ तो पालतू पशु की भाँति अब भी उन्हीं का राग अलापते हैं। लल्लू की चांदी ही चांदी थी। साशन में अपनी मनमानी करने लगा। साशन व्यवस्था प्रजातंत्र से हटकर एकतंत्र हो गयी। तभी चारा घोटाला सामने आया और बेचारे को 1997 में जेल जाना पड़ा। जेल तो चला गया परन्तु अपनी अंगूठा छाप पत्नी रबड़ी देवी को मुख्य मंत्री के कुर्सी पर आसीन कर गया। बिहार में अब भी उसी का बोलबाला था परन्तु जेल के सलाखों के पीछे से। उसका दबदबा बरकरार थाऔर मुस्लिम-यादव-दलित ‘वोट बैंक’ की कृपा से यह दबदबा २००५ तक बना रहा।
लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। विकास ठप्प, रोजगार ठप्प, आमदनी ठप्प, शिक्षा तो कब की ठप्प हो चुकी थी। बिहार का क़ानून व्यवस्था लल्लू राबड़ी के १५ सालों में विल्कुल ही चरमरा गयी थी। सरकारी विद्यालयों में धीरे धीरे पढ़ाई का स्तर गिरता गया और प्राइवेट ट्यूशन व कोचिंग लगभग हर विद्यार्थी के लिए आवश्यकता बन गयी और यह एक व्यवसाय बन गया। अच्छी शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यार्थी दूसरे राज्यों में पलायन करने लगे।भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया। जीडीपी और वैयक्तिक आय घटती गयी। लोग जीविका के लिए पंजाब, हरियाणा और बंगाल पलायन करने लगे।
चिर-प्रत्याशित परिवर्तन
हर आतताई का अंत होता है और लालू-रबड़ी का भी हुआ। २००५ में परिवर्तन की आंधी आई और आतताईयो को उड़ा ले गयी। बिहार में JDU - BJP का सुसाशन आया। क़ानून व्यवस्था ठीक की गयी। बहुतेरे आतताइयों का एनकाउंटर हुआ या फिर जेल।लोगों के मन से भय धीरे धीरे निकला और विकास का दौर शुरू हुआ। शहर-शहर विश्व स्तरीय सड़कें बनी। कई कल्याणकारी प्रोजेक्ट्स चली। कृषि व्यवस्था सुधरी। कुछ पुराने और जर्जर इंडस्ट्रीज का जीर्णोद्धार भी हुआ। लालू-रबड़ी का फिरौती राज ख़त्म हुआ।
विद्यालयों को सुधारनें का काम भी शुरू हुआ लेकिन शिक्षण का घटिया स्तर नहीं सुधरा। जो कुछ विद्यालय या शिक्षण संस्थान जर्जर स्थिति में, सिर्फ नाम के लिए ही थे। होनहार विद्यार्थी अपना नामांकरण करवा कर कोटा या अन्य शहर जाकर पढ़ते और सिर्फ वार्षिक परिक्षा के लिए विद्यालय आते थे। हर परिक्षा में विद्यार्थियों को चोरी और धांधली से पास कराया जानें लगा जिसके दृश्य देश और विदेश के सामने भी आये जो शर्मसार करने वाले थे।
बिहार में सदैव ही उच्च श्रेणी तकनीकी संस्थानों की कमी रही थी। नितीश बाबू के राज में कुछ सरकारी मेडिकल, इंजिनीरिंग और पॉलिटेक्निक कॉलेज खुले लेकिन ऐसा माना जाता है कि रिजर्वेशन के तहत शिक्षकों का अनुभव व स्तर असंतोषप्रद रहा है। बिहार में सरकारी स्कूली शिक्षा तो लगभग चौपट ही था लेकिन तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता भी उपयुक्त प्रशिक्षकों के अभाव में दयनीय है। बिहार के विकास के राह में रोड़े अटकाने का काम सिर्फ लालू-रबड़ी ही नहीं वल्कि बहुतों ने किए हैं। नेताओं के अलावे और भी कई दुश्मन रहे हैं।
जागरूकता का अभाव
अधिकतर बिहारी गरीब हैं और उन्हें कबीर के दोहे पर असीम विश्वास है :-”साँई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।।“ इसीलिए वे अधिक मिहनत करने में यकीन नहीं रखते।बहुतेरे लोग आलस और अकर्मण्यता से ग्रसित हैं । यहाँ मजदूरों के घर में भी अगर चार दिनों का राशन होता है तो वे मज़दूरी के लिए जानें से कतराते हैं। बिहार में काम काज, रोजगार पैदल गति से चलती रही है। बाजारें १० बजे खुलती है। वहाँ की ज़िंदगी में काफी जड़ता है। बहुत ही कम लोग ऐसे हैं जिनमें अपने समाज, प्रान्त या देश की विकास का जज्बा है।
बिहार का दूसरा दुश्मन वहाँ की प्रशासन की उदासीनता है। ‘दूसरे नंबर की आमदनी’ से ज्यादातर अधिकारी अपना जेब भरते रहे हैं ।आम आदमी की समस्याओं से उन्हें कम ही सरोकार रहता है। वैसे पुलिस प्रसाशन तो हर राज्यों में ही भ्रष्टाचार से ग्रसित है, बिहार में यह चरम सीमा पर है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आवेदनकर्ता कौन है, कोई भी सरकारी कार्य के लिए अधिकारियों के जेब गर्म करने ही पड़ते हैं। अनुमान लगाइए कि ७० के दशक के हमारे पटना युनिवर्सिटी का एक चप्पल छाप गरीब, हसमुख परन्तु मेधावी छात्र नेता लालू आज हज़ारो करोड़ों का स्वयं ही मालिक है और अपने सारे सगे सम्बन्धियों को करोड़पति बना दिया है। यह सिर्फ लालू की बात नहीं, ज्यादातर मंत्रियों या अधिकारियों का यही हाल है। राज्य का कोई भी डिपार्टमेंट ऐसा नहीं जिसमें भ्रष्टाचार का दीमक न लगा हो। नीतीश बाबू ने भ्रष्टाचार कम करने में कुछ महत्वपूर्ण काम किए हैं लेकिन सिर्फ सरकार क्या करे जहाँ की आम जनता ही जागरूक न हो।
प्राकृतिक आपदा
बिहार बाढ़ रूपी प्राकृतिक आपदा से सदैव ग्रसित रहा है। यह हर वर्ष की व्यथा है। लगभग सारे किसान इससे ग्रसित हैं। अरबों करोड़ रुपये की लगी फसल बर्बाद हो जाती है।बिहार ने विश्व को प्रसिद्द इंजिनियर दिए हैं लेकिन कोई भी सरकार एक ऐसा प्लान नहीं बनाया कि इस त्रासदी से छुटकारा मिले। कोई स्थायी प्रारूप नहीं है।हर साल गंगा, कोशी, गंडक आदि नदी सैकड़ों लोगो की जान और अरबों की क्षति कर जाती है लेकिन सरकारों को कोई ख़ास सरोकार नहीं।चूँकि सरकार ने सिंचाई पर कभी भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया, नहरों की कमीं है जो बाढ़ का प्रकोप कुछ कम कर सके।यही कारण है कि लगभग हर वर्ष सूखा भी पड़ता है जो फसलों को बर्बाद कर जाती है।इस राज्य में विरले ही किसान अपनी फसलों का बीमा कराते हैं।
स्वास्थ्य सेवा
बिहार में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा नगण्य थी ।सरकारी अस्पताल और डिस्पेंसरी जर्जर पड़े थे । डॉक्टर या तो अस्पताल न जाकर ज्यादातर अपना व्यक्तिगत क्लिनिक चलाते थे या रोगियों को बेहतर चिकित्सा के लोभ से अपनी क्लिनिक में ही आने को कहते थे ।अगर कोई रोगी अस्पताल जाता भी था तो उनको जाँच और दवाई बाहर से ही करानी पड़ती थी ।साठ केदशकों से ही अस्पतालों की बदहाल स्थिति चली आ रही थी। दवा और रासायन की आपूर्ति कम थी। लल्लू राबड़ी राज में उनहोंने भी अपने आप को भ्रष्टाचार नामक राज धर्म में लिप्त कर लिया। लालू-राबड़ी का भ्रष्टाचारी हाथ जिन जिन चीजों पर पड़ा वह गोबर हो गया। गोबर होने का उदाहरण सहरसा के इस चन्द्रायण अस्पताल का है।माना जाता है कि इसकी आधी रकम लालू राबड़ी के खाते में चले गए और अस्पताल के एक छोटे भाग को आंशिक रूप से बनाकर उदघाटन कर सारे पैसे हजम कर गए।
बिहार में आम तौर से दवा या तो अस्पताल पहुँचती ही नहीं या पहुँचते ही गायब हो जाती। माना जाता है कि कमीशन पूरे तंत्र में बँट जाता था। भला हो मोदी का कि देश के सारे अस्पतालों पर आयुष्मान भारत की जवाबदेही डाली गयी और साल भर में ही सरकारी चिकित्सा व्यवस्था को जबरन काम में लगना पड़ा।शुरू शुरू दिक्कतें अवश्य आई।छिट-पुट भ्रष्टाचार के भी मामले आए लेकिन धीरे-धीरे जिला और उपजिला स्तर तक के अस्पताल अब काम कर रहे हैं।निजी अस्पताल की तुलना में सुविधाएँ अभी भी अपर्याप्त हैं लेकिन औसत रूपेण अधिकाँश रोगों के जाँच और उपचार हो जाती है और थोड़ी बहुत कमी सूचिबद्ध निजी अस्पताल के अंदर पूरी हो जाती है। कोरोना महामारी में ये अस्पताल बहुत ही उपयोगी सावित हुए अन्यथा बिहार में तबाही मच जाती।
राजनीति का बदला रंग
पूरे भारत में आज विकास के नाम पर स्पर्धा चल पडी है। हर राजनैतिक पार्टियाँ विकास का ही नारा लगाती है चाहे वह यदुवंशियों के मुस्लिम-यादव मन्त्र, माया की जातिगत कटुता, राहुल-ममता-ओवैसी-पवार का मुस्लिम स्नेह, जगन-स्टालिन का ईसाई प्रेम या फिर देश के विघटनकारियों से पिनरई विजयन या पंजाब के चन्नी सिद्धू की साँठ-गाँठ। सबों का अपना अपना एजेंडा है पर चुनाव लड़ते हैं विकास के नाम पर। धन्य हैं मोदीजी। सबों को गिरगिट बना दिया है। सब रंग बदलनें में माहिर हो गए हैं।
अपने पिता लालू के गुणों से संपन्न तेजस्वी ने भी २०२० के चुनाव में अपना रंग दिखाया।दो साल उपमुख्यमंत्री रह कर तो सिर्फ अपना जेब भरा परन्तु चुनाव आते ही बिहारियों को सरकारी नौकरी देने की बात करने लगा।यह अंगूठा छाप नेता बिहार को महानता के सपनें दिखाने लगा। और कांग्रेस की दुर्दशा देखिए, उसके पिछलग्गू हो गए।एग्जिट पोल ने कहा जीत रहे हो... तो अपना गुप्त रूप को गुप्त रखने के लिए तेजस्वी ने अपने डकैतों को कहा "जश्न में फायरिंग नहीं करना"। अवैध बन्दूक चलाने के बहुत मौके मिलेंगे। लेकिन भला हो बिहार के सुलझे मतदाताओं का।लालू तेजस्वी के मंसूबों पर पानी फेर दिया।बिहार में पुनः सुशासन आया।
बिहार का मंद प्रगति-पथ
बिहार पुनः विकास के पथ पर अग्रसर है लेकिन गति बहुत ही मंद है।बिहार को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए एक जागरूक, प्रगतिशील, कर्मठ और साफ़ छवि का पढ़ा लिखा युवा नेता चाहिए।नितीश जी ने बहुत शासन किया।अब उन्हें चाहिए कि सत्ता का बागडोर एक होनहार नेता के हाथ सौंप बिहार की राजनीति के भीष्म पितामह बनें।बिहार को कृषि, सेवा, इंडस्ट्री और शिक्षा में तेज गति से आगे बढ़ाना है और साथ ही भ्रष्टाचार और जंगलराज की प्रवृत्तियों पर कुठाराघात ।यह तभी संभव है जब सत्ता एक प्रगतिशील युवा के हाथ में हो।बिहार को भविष्य में भी भ्रष्ट, आततायी, राजनैतिक मगरमच्छों से सावधान रहना होगा।वहाँ बांग्लादेशी घुसपैठियों का भी बहुतायत है।आज का मुस्लिम अलग है।वह अपने बिहारी नेताओं से ज्यादा विदेशी जिहादियों के वक्तव्यों पर ध्यान देता है। आज का अधिकतर मुस्लिम युवा भारत को ‘विश्व इस्लामी खलीफत’ का हिस्सा बनाने के सपनें देखता है।बिहार को इन सारी विघटनकारी शक्तियों पर अंकुश लगाना पडेगा और विकास के पथ पर अग्रसर होना होगा।इसी में बिहार का उज्जवल भविष्य है।
लेकिन अब नितीश बाबू के सुसाशन की छवि धूमिल हो रही है। लगता है कुर्सी से मोह हो गया है। उनकी विकास की गाड़ी अत्यधिक धीमी पड़ गयी है, नयी सोच का अभाव है और किसी प्रतिभाशाली स्वच्छ छवि के युवा को सत्ता देने से कतरा रहे हैं । आये दिनों क़ानून व्यवस्था की पोल खुल रही है। लल्लू-पुत्र तो कब से फिराक में लगे हैं सत्ता हथियाने को और बिहार में पुनः जंगलराज स्थापित करने को। उनकी मुस्लिम-यादव और कुछ चापलूस विद्वान् गैंग का मनो २०२० चुनाव में मुँह का निवाला छिन गया हो। वे सत्ता पाने के लिए महत्वाकांक्षा रखते हैं और किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार हैं। उधर चिराग पासवान भी बीजेपी और नितीश के लिए एक सिरदर्द बने हैं जो हमेशा डंक मारने को तैयार है। जनता को इन लकड़बघ्घों से सावधान रहना होगा।