De Sumangala Jha Chief Editor

सम्पादकीय : दरारें

दरारें शब्द सुनते ही असंख्य विचार मस्तिष्क में आ जाते हैं।तीनअक्षर का यह शब्द सामाजिक,राजनीतिक,पारिवारिक,धार्मिक प्राकृतिक के अलावे अन्य भी कई परिपेक्ष्य में प्रयोग में लाए जाते हैं।ये दरारें कहीं बनाई जाती है तो कहीं स्वतः ही उत्पन्न होती हैं परन्तु विनाश की आरंभिक भूमिका यहीं से आरम्भ होती है। समय,परिस्थिति और परिवेश की सक्रियता का परिणाम दरारों के उत्पन्न होने से सकारात्मक कम नकारात्मक ही ज्यादा है। हिन्दुओं के सनातन वैदिक धर्मक्षेत्र के बीच आने वाली दरारों ने कुछ स्वार्थी एवं बुद्धिजीवियों को पनपने का अवसर दिया जिसके कारण विभिन्न मताबलम्बियों द्वारा जैन,बौद्ध, ईसाई, इस्लाम,सिख्ख आदि अनेक पंथ विकसित हुए,परिणामस्वरूप आपसी संघर्ष ने वैमनस्यता बढ़ाई और आज मनुष्यों के बीच ही देव-दानव,दैत्य-पिशाच सभी स्वयँ को सर्वश्रेष्ठ मनवाने के चक्कर में एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं। मनुस्मृति जलाने के बावजूद सामाजिक वैमनस्यता के कारण जातिवाद जो व्यवसाय आधारित था, आज कटुता, आरक्षण,ऊंच-नीच,आर्थिक रूप से अमीर -गरीब के बीच की दूरी को बढ़ाता गया है। मनुस्मृति जलाने वालों ने कभी कुरान जलाने की हिमाकत नहीं की जिसके कारण मनुष्यों में राक्षसी प्रवृत्तियों का दबदबापन बढ़ता जा रहा है और संसार को विनाशकारी स्थिति में घसीटने की पुरजोर कोशिश में लगा हुआ है। पारिवारिक दृष्टिकोण से संयुक्त परिवार का टूटना एवं एकाकी परिवारों में बच्चों की सुरक्षा, मानसिक जुड़ाव,सुख-दुःख की साझेदारी अनसुलझे सामाजिक प्रश्नचिन्ह बन कर रह गए हैं। एकाकीपन एवं असुरक्षित वातावरण ने संघर्ष के स्थान पर पलायन वादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया है, जिसका परिणाम कश्मीर,बंगाल,केरल,असम,बंगाल आदि में आसानी से देखा जा सकता है।

दरारों का सबसे भयंकर प्राकृतिक परिणाम तो हमें आजकल पहाड़ी क्षेत्रों में देखने के लिए मिल रहा है।जोशीमठ, कर्णप्रयाग आदि कई क्षेत्र न जाने कब पृथ्वी के गर्भ में समा जाएं पता नहीं ! ऐसे भी विकास की चरमपरिणति के बाद विनाश के ताण्डव ने कई विकसित नगरों एवं सभ्यताओं को अपने आगोश में समेट उन्हें नेस्तनाबूद कर दिया है। यह सत्य है कि प्राकृतिक आपदाओं के लिए भी मनुष्य स्वयँ ही जिम्मेदार है। परन्तु दरारें यहाँ भी हैं । जिन विकसित देशों ने प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण के लिए सबसे ज्यादा शोर मचाया है वस्तुतः उन्हीं देशों ने प्राकृतिक संपदाओं का दोहन कर अन्य विकासशील देशों के विकास में बाधा पहुँचाने के लिए निरंतर शोर मचाने का कार्य किया है। भारत जैसे विकास शील देश के लिए विभिन्न क्षेत्रों में भारत विरोधियों की भरमार है । ये कई रूपों में स्वर्णमृग मारीच एवं इच्छाधारी नाग-नागिन की तरह सामाजिक धरातल पर भारत को खोखला करने की कोशिश कर रहे हैं। मनोरंजन,वैश्विक,प्रशाशनतंत्र,शैक्षणिक विभाग, राजनीति आदि स्थानों को नैतिकता विहीन कर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विदेशियों द्वारा चलाये जाने वाले भारत विरोधी साजिशों को बढ़ावा दे रहे हैं।सत्तर साल से एक गरीब अशिक्षित देश की पहचान रखने वाले देश ने पिछले आठ साल में विकास शील कार्यों की जिस गति को पकड़ा है उसने विभिन्न राज्यों में रोजगार तो बढ़ाया ही है साथ ही भारत और भारतीय कई देशों को काँटों की तरह खटक भी रहे हैं।

आज अनेक देशों में प्राकृतिक एवं मानव निर्मित अथवा आह्वानित विनाशकारी घटनाओं के कारण कई ध्वस्त सभ्यताओं ने इतिहासकारों एवं पुरातत्व विशेषज्ञों के लिए उनकी व्यस्तता के व्यवसाय के द्वार खोल दिये हैं; जिसके उदाहरण द्वारिका की खोज,रोमन साम्राज्य का इतिहास, पारसी, यहूदी या पुराने खानाबदोश अरब के इतिहास को पढ़ कर समझा जा सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि किसी दिन वेनिस या पहाड़-पहाड़ियों पर बसे बहुतायत नगर एवं गाँव भविष्य में पुरातत्व विशेषज्ञों की खोज के विषय बन जायें।

राजनीतिक क्षेत्र में पड़ने वाली दरारों ने तो कई देशों को टुकड़े-टुकड़ों में बाँट दिया है एवं कई देश तो अपनी संपन्नता खो कर अस्तित्व हीनता को अपनाने की कगार पर आ खड़े हैं। राजनीतिक दलों की अंदरूनी एवं बाहरी दरारों ने न सिर्फ कई देशों के अंदर बल्कि अंतरिक्ष तक में नकारात्मक तूफान खड़ा कर जीव मात्र की जिंदगी को खत्म करने के पाप पूर्ण कुकृत्यों पर अपना आधिपत्य जमा लिया है।अभी हाल में जोशीमठ,कर्णप्रयाग आदि अन्य पहाड़ी जनपदों में आनेवाली दरारें एवं भूमि-धँसने की समस्या से आवासों के जमींदोज़ हो जाने के कारण यहाँ की स्थानीय जनता एवं सरकार भी परेशान है। इसके साथ ही कई लोगों को राजनीतिक फायदा उठाने का मौका भी मिल गया है। मौका परस्त सरकार विरोधी तत्वों ने भी सर उठाना आरंभ कर स्थानीय लोगों को भड़काना आरम्भ कर दिया है। बिहार-यू.पी. आदि के प्रचलित इतिहास के आधार पर कहना अनुचित नहीं होगा कि माओवादी मानसिकता के लोग, सरकार विरोधी समूह स्थानीय लोगों की सहानुभूति हासिल कर येन-केन-प्रकारेण यहाँ के विकास कार्य पर प्रतिबंध लगाने का या फिर अपने ही शर्तों के अनुसार (एन टी पी सी) कार्यों को आगे बढ़ने देने की कोशिश कर रहे हैं। यद्यपि इसके पीछे कौन-कौन सी आर्थिक एवं राजनीतिक शक्तियाँ सक्रिय हैं यह जाँच का विषय है।

जहाँ तक स्थानीय लोगों की भावनाओं का सवाल है उन्हें उनके नुकसान का मुआवजा पुराने मकान की लागत के अनुसार नहीं बल्कि उसी क्षेत्रफल में बनाये जाने वाले एक नये मजबूत मकान के बनने के खर्च के अनुसार ही निश्चित रूप से मिलना चाहिए ताकि पर्यटकों के रखरखाव के साथ उनके रोजगार की समस्या का हल हो सके एवं उन्हें निश्चित आमदनी भी होती रहे। इस क्षेत्र में सरकार की किसी भी प्रकार की लापरवाही स्थानीय नागरिकों के लिये अस्वीकृत है। स्थानीय लोग अपने नेताओं को वोट इस उम्मीद से देते हैं कि वे नेता सुख-दुःख में उनके साथ रहेंगे,जनता की उम्मीदों पर खरा न उतरना उनकी भावनाओं को छलना है, जिसे सहज स्वीकार नहीं किया जा सकता है। आज अगर यहाँ की स्थानीय सरकार या केन्द्र सरकार स्थानीय लोगों की मदद उदारता से करने में थोड़ी भी उदासीनता दिखाती है तो भाजपा सरकार, केन्द्रसरकार या भारत को कमजोर करने वाली शक्तियाँ अपने अंगद वाले पाँव इस देवभूमि में जमाने में सफल हो जायेंगे। भोली पहाड़ी देवांगनाएँ एवं इन्द्र सभा के देवगण इन चालाक-धूर्तों एवं देशविरोधियों की बातों में उलझ कर जो यहाँ के विकास को रोकने की पुरजोर कोशिश में लगी है, अपने मकसद में कामयाब हो जाएंगे। ऐसे भी इस देश में बर्बर, जाहिल, बख्तियार खिजली जैसे अधमों की कमी नहीं है। एक ने ज्ञान से समृद्ध पुस्तकों को नालन्दा और तक्षशिला में जलाया है तो वैसे ही सामाजिक वैमनस्यता को पैदा करने वाला नृशंस अज्ञानी ,अधम 'मौर्य' ने रामचरित मानस ऐसे पवित्र ग्रन्थ को फाड़ने एवं जलाने का कुकर्म करने के बाद भी हिन्दुओं की सहनशीलता का फायदा उठा सहज जिंदगी जीने का उत्सव मना रहा है। सोचती हूँ यदि इसने कुरान जलाया होता तो क्या हुआ होता?...... खैर ! इन अनगिनत विभिन्नता युक्त दरारों को उतपन्न करने वाले मनुष्यों के लिए सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि 'विनाश काले विपरीत बुद्धि।'

आज बंगलोर से देवभूमि जोशीमठ में मैं सिर्फ सत्य को प्रत्यक्ष रूप से देखने की उत्सुकतावश आई हूँ । यहाँ के स्थानीय लोगों से बातचीत कर, यहाँ की स्थानीय समस्याओं को एक स्त्री होने के कारण अपने दृष्टिकोण से समझने की यथासंभव कोशिश की है। कुछ स्थानीय नेताओं के प्रवचन भी सुने हैं। अपनी अल्पबुद्धि से जो कुछ भी समझ पाई उसके लिए यही कहा जा सकता है कि सरकार को धैर्य पूर्वक यहाँ के स्थानीय लोगों की समस्याओं की जानकारी घर-घर जा कर हासिल करनी चाहिए। स्थान्तरण को बढ़ावा न दे कर यहाँ की जनता को हर प्रकार की सुविधाएं एवं नुकसान का मुआवजा उपलब्ध कराना चाहिए । परदादा दादा की जमीन को छोड़ कर पलायन करना समस्याओं का समाधान नहीं है। आवश्यकता है ! देवभूमि एवं यहाँ के लोगों की सुरक्षा की। सुरक्षित वैज्ञानिक तात्विक आधार पर स्थान का गहन अध्ययन आवश्यक है। आज की विकसित वैज्ञानिक तकनीकियों के प्रयोग से कुछ भी नितान्त असम्भव नहीं है। वैज्ञानिकों को अपने अथक परिश्रम एवं ज्ञान का प्रयोग कर, इस स्थान को ज्यादा तकनीकी मजबूती के साथ विकसित करने में सरकार एवं स्थानीय लोगों का साथ देना चाहिए। अस्थायी तौर पर घर से निर्वासित लोगों के स्वस्थान पर स्थायी पुनर्वास की अत्यंत आवश्यकता है। देवभूमि के देवगण एवं देवांगनाओं का स्थानीय ज्योतिर्लिंग के प्रति अटूट विश्वास है। यह विश्वास ही यहाँ के लोगों को आध्यात्मिक दैवीय गुणों से सम्पन्न रख, इस स्थान को राक्षसों एवं राक्षसी प्रवृत्तियों के लोगों से बचा कर रख पाए हैं। पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों की आवाजाही से यहाँ की जनता रोजगार युक्त एवं सम्पन्न भी रह सकते हैं। प्रत्येक प्रकार के शैक्षणिक संस्थाओं का विकास भी स्थानीय लोगों के स्थान्तरण को रोकने के लिए आवश्यक है। सर्वोपरि है देवताओं की कृपादृष्टि से इस देवभूमि की स्थायी सुरक्षा।उम्मीद है कि सरकार और देवगन दोनों ही मिल अपनी इच्छशक्ति,कर्मठता, उदारता, सरकारी आर्थिक अनुदान से देवभूमि को संरक्षित विकसित एवं सुरक्षित रखने में सक्षम होंगे।

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