सम्पादकीय: मन्तव्य
आगत वर्ष में राम लला के स्वागत के साथ गत वर्ष की विदाई सभी भारतवासियों के लिए आनन्द मय एवं संतोषप्रद है। कहावत है 'अंत भला तो सब भला" अंत के बाद उदय की संभावना मनुष्य के सकारात्मक सोच को प्रदर्शित करते हैं जो उन्हें आरोहण की ओर अग्रसर करते हैं। बीस सौ तेईस का साल गुजरते-गुजरते अनेक प्रकार के अनुभव, सुख - दुःख की अनुभूतियाँ, बदलाव की दार्शनिकता भी अपनी छवि छोड़ जाते हैं। कोरोना के बाद सभी देशों में आर्थिक मंदी के बावजूद मोदी जी की जीवटता के कारण भारत सभी परिस्थियों को झेलता हुआ आगे बढ़ता रहा है।
विपक्षी पार्टियों को भले ही अनुसंधान, अंतरिक्ष, रक्षा क्षेत्र, के अलावे भी अनेक क्षेत्रों में सर्वव्यापी विकास, आत्म निर्भरता नहीं दिखाई दे रहा हो परन्तु आम जनता को जन-धन योजना, गाँव के घरों तक सड़क, बिजली, जल, उज्वला योजना, स्वास्थ्य सेवाएँ, कन्या समृद्धि योजना, किसान समृद्धि योजना के अलावे भी सैकड़ों योजनाओं का लाभ मिल रहा है। जिन राज्यों में जनता, केंद्र सरकार द्वारा लागू की गयी योजनाओं एवं लाभ से वंचित हैं तो वहाँ की भ्र्ष्ट एवं लुटेरी स्थानीय सरकारें सारा "अर्थ" अपने ही पेट में डकार जाते हैं। जहाँ तक संभव है भ्रष्टाचारियों पर लगाम लगाने के लिए भी स्वायत्त सरकारी संगठन भी यथासंभव सक्रिय हैं जिसके कारण विपक्षी पार्टियों की नाराजगी स्वभाविक है। आम जनता को कष्ट तब होता है जब विकास को रोकने के लिए, अराजकता फ़ैलाने के लिए, सार्वजनिक सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचाने के लिए या संसद में हंगामा मचाने के लिए (इंडी आलयन) विपक्षी गठबंधन पार्टियाँ गुंडागर्दी का सहारा लेते हैं। विसंगत प्रश्नों को उठा कर, असादृश्य व्यक्ति से उत्तर माँगने की हठधर्मी कर, संसदीय कार्यों को बाधित करते हैं ताकि महत्वपूर्ण प्रस्तावित विधेयकों पर न चर्चा की जा सके और न ही विधेयको को पारित किया जा सके।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी प्रकार के आर्थिक नुकसान की भरपाई तो अथक परिश्रम करने वाले करदाताओं को ही चुकाना पड़ता है। कोई भी नेता वोट के लोभ में गरीबों को मुफ्त सुविधायें स्वयं के अर्जित पैसे से नहीं देते हैं। वे विकास कार्य को रोकते हैं या मेहनती जनता को ही लूटते हैं,जिसे भोली जनता समझ नहीं पाती है। बार-बार भ्रष्ट नेताओं के झाँसे में आ वोट दे, उसे सत्ता में वापस लाती है एवं पाँच साल अपने किये का परिणाम भुगतती रहती है।
देश में अराजकता फ़ैलाने के लिए विदेशों से पैसे लेने वाले नेता निश्चित ही निंदनीय हैं, इनके ऊपर शिकंजा कसना अनिवार्य है जिसके कारण प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय जाँच ब्यूरो, राष्ट्रिय सुरक्षा संस्था एवं कर्तव्यनिष्ठ पुलिस प्रशासन भी विपक्षी गठबंधन के क्रोध का शिकार हैं। चिड़चिड़ापन एवं क्रोध के कारण वे मोदी जी को गालियाँ, धमकियाँ एवं जालसाजियों का शिकार बनाने के लिए सक्रीय रहते हैं परन्तु मोदी जी "साँच को आँच क्या?" का ध्येय लिए गतिमान रहते हैं जो विपक्षियों के लिए अति दुखदायी है।"भगवान राम " विपक्षी गठबंधित नेताओं को भी सद्बुद्धि दें।
कहावत हैं कि चाँदी के लोभ से ईमान बिक जाता है। समूची दुनियाँ में शायद बड़े -बड़े महानुभावों पर भी यह कहावत लागू होता है। आज जब आधे से अधिक देश आंतरिक गृह युद्ध तथा अंतर राष्ट्रिय युद्ध में लिप्त हो इंसानियत की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं तो कुछ विश्वस्तर के नेताओं के बयान शर्मनाक, हास्यप्रद एवं मानवीय गरिमा को चोट पहुँचाने वाली तुक्षता का पर्याय बन गयी हैं। विभिन्न मुद्दों एवं कलहपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय परिस्थियों में मानवाधिकार की बातें करने वाली संस्थायें आज अपने गठन के औचित्य को लगभग खो चुकी है। अपने दोहरे व्यवहार एवं वक्तव्यों को प्रस्तुत करने वाले विश्वस्तरीय नेताओं की सभ्य उदारवादी समाज, समूह, समुदाय, धर्मविशेष, जाति विशेष के प्रति घटित संगीन आपराधिक मामलों पर चुप्पी तथा आरजकता, असभ्यता, बर्बरता जाहिलता से परिपूर्ण आतंकियों के लिए मानवाधिकार की बातें असहनीय एवं निश्चित ही अस्वीकार्य हैं। विश्व निश्चित ही जाहिल-बर्बर-असभ्य आतंकियों के समर्थन करने वाले तथा आतंकियों का विरोध कर सभ्य, शांतिप्रिय, उदारमना सांस्कृतियों को समझ कर, उसे अपनाने, उसे सुरक्षित करने वाले दो खेमों में बँट चुका है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा अपने मूल्यों का निर्वाह सटीकता से नहीं कर पाने के कारण अपनी विश्वशनीयता खो रहा है जिसके कारण अनेक देश अपनी स्वायत्तता, स्वाभिमान, एवं नागरिक सुरक्षा के लिए थोपे गए को युद्ध स्वीकार करने के लिए बाध्य हो रहे हैं। वर्तमान में एंटोनी गुटेरेस के संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए गए वक्तव्य एवं इजरायल का उसके प्रति विरोध स्वाभाविक रूप से गुटेरेस के मानवाधिकार के प्रति दोहरे व्यवहार को प्रदर्शित करता है। इससे पहले भी कोरोना के प्रकोप को झेलने वाली समूची दुनियाँ को न्याय दिलाने तथा अपराधी देश को सजा दिलाने में विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक असमर्थ रहे हैं। जिससे प्रदर्शित है कि अप्रत्यक्षतः ये किसी दबाव, भय या लोभ के शिकार हैं। अंततः यही कहा जा सकता है कि जिन आदर्शों को लेकर इन विश्वस्तरीय संगठनों को बनाया गया है, वे आज अपनी सकारात्मक कर्त्तव्यबद्धता से व्यक्त अथवा अव्यक्त कारणों के कारण भटके दिखाई दे रहे हैं।