anarchist

वैचारिक उत्पाद में गिरावट

भारत देश में कुछ खबरें भारत के भविष्य के लिये चिन्ता के योग्य हैं, राजनीतिक उठा-पटक तो आये दिनों की बातें हैं परन्तु राजनीति के तहत कुछ पार्टियों और नेताओं की मानसिकता, उनकी सोच में जबरदस्त गिरावट आई है।

'आन्दोलनजीवी' एक नवीन शब्द है जिसके द्वारा "मौका-परस्त-कुटिल" समूहों पर स्वाभाविक रूप से चोट किया गया है। मेरे खयाल से विपक्ष, लिबरल तथा कथित उदारवादी, झूठे-सेक्युलर, बिके हुए देश विरोधी पत्रकार, दोहरीकरण की मानसिकता से ग्रसित मानवाधिकार वाले गुटों के लिए सिर्फ आंदोलनजीवी का विशेषण पर्याप्त नहीं है। वामपंथी राजनीतिक पार्टियाँ, देश-विरोधी, हिन्दुओं एवँ हिंदुस्तान से द्वेषपूर्ण भाव रखने वाले आतंकियों, चालबाज विदेशी समर्थकों को कुछ अन्य विशेषणों से अलंकृत करने की आवश्यकता है। कुछ इस प्रकार नामकरण होना चाहिये… भ्रष्टाचार जीवी, दंगाजीवी, चीन-गुप्त-समझौता जीवी, इटालियन-तलवेचट्टू जीवी, पाकिस्तान-राग-आलाप जीवी,भारत-विरोधी-जीवी, निंदाजीवी, टूलकिट जीवी, दुश्मन देश-जासूस-जीवी, कृषक-रक्त-चूसक-जीवी इत्यादि।

नव-आकर्षक-उत्पादों की शृंखला में गण्य-मान्य हैं-मिंयाँ-खलीफाओं ऐसों को आदर्श मनाने वाले मानसिक रोगी, हर जगह गन्दगी ढूंढने वाले चटकारे ले गन्दगी चाटने वाले गन्दगी जीवी, किसान आक्रोश आंदोलन में नर्तकी के ठुमके देखने वाले ऐय्यासी जीवी… ऐसे बहुतायत से हैं।

भारत की सनातन संस्कृति एवं हिन्दुओं से वैचारिक वैमनस्यता रखने वाले मानसिक रूप से असन्तुलित कुछ तृण मूल कोंग्रेसी, समाजवादी, कम्युनिस्ट, मुस्लिम तथा कोंग्रेसी नेताओं की विचारधारा और उनके कुकृत्यों के अनुसार अनुसंधान कर उन्हें विभिन्न विशेषणों से अलंकृत किया जा सकता है।

कई पुस्तकों के लेखक पश्चिम की धरती के उत्पाद तथा पश्चिमी एवं मध्य एशिया की संस्कृति से प्रभावित रसिक मिज़ाज,अपने लटों को झटके दे-दे कर वक्तव्य देने वाले 'शशि थुरूर' की मानसिकता को व्यक्त करने वाली, योगासन के प्रति 'मीम' सार्वजनिक रूप से उनके हृदय की गंदगी को मुखपुस्तिका की पटल पर प्रकट करती हैं। योगशास्त्र और योगासन करती स्त्रियों के प्रति असम्मानजनक भाव उनकी मानसिक असंतुलन और सोच के गिरते स्तर को ही चिन्हित कर रही है। भारत या किसी भी जगह योग-ध्यान-सन्धान मनुष्यों के हृदय में सात्विक वृत्तियों का विकास करती है।

योग के अष्टाङ्ग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारण, ध्यान, समाधि में प्रथम पाद का मुख्य विषय - चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन के द्वारा आत्मसाक्षात्कार करना है। मेरे ख्याल से चौंसठ की उम्र में तीन पत्नियों का भोग लगाने के बाद शशि को पतंजलि के योग-ध्यान की बहुत ज्यादा आवश्यता है। मानसिक विकृति की चरमसीमा ही कहा जाए कि विभिन्न पुस्तकों के लेखक सम्मानीय पदासीन वामपंथी नेताओं को अपनी संस्कृति का अपमान करना अच्छा लगता है। जिन नेताओं का आदर्श मियां खलीफा हो उसे योगशास्त्र का अभ्यास करती स्त्रियों में भी अपनी लुपलुपाती कामवासना का दिखाई देना स्वाभाविक ही है।

कई मुद्दों पर तो कोंग्रेसियों और अन्य वामपंथियों को सवाल करने का एवं उसके उत्तर को भी जानने की आवश्यकता नहीं है। वे अपने पुराने वक्तव्यों को देख कर ही उत्तर पा सकते हैं। उदाहरण के लिए एक चिदम्बरम का सार्वजनिक फुटेज-

'चिदम्बरम उत्तर दे रहे हैं चिदम्बरम को' के वीडियो क्लिप में 'एन आर सी' तथा 'सी ए ए' के उत्तर स्प्ष्ट रूप से दिए गए हैं। राहुलासुर की तो बातें ही छोड़ दीजिए पता नहीं किस किस्म का भाँग,चरस या अफीम का सेवन कर वक्तव्य दे जाते हैं कि उनके चमचे भी वक्तव्यों के अर्थ को सही साबित करते-करते पागल हो जाते हैं। राहुल-वक्तव्य अनुवादक तमिलनाडु में अपनी कीर्ति-कथा का प्रदर्शन कर हास्य कलाकारों को भी पीछे छोड़ गए हैं। मछुआरों की समस्याओं पर पप्पू का ज्ञान-प्रदर्शन, किसानों की समस्या पर पिंकी का भाषण सुन कर इतना कहना ही काफी है कि "ई छोरी कि छोरा से कम है'।

अधीर रंजन की बातें और बोलने का अंदाज मनोरंजन की दुनियाँ में नवीन उन्माद पैदा करती है जैसे उनको देसी ठर्रा पिला कर किसी ने उन्हें लट्टू नागफनी के पौधों पर बिठा दिया हो,जिसके कारण वो अपने आसान पर स्थिर हो बैठ नहीं पाते हैं। ममताबाई का “कक्का-छि-छि,कक्का छि-छितथा अब्बा-अब्बा, तब्बा-तब्बा, टब्बा-टब्बा” सुन कर ऐसा लगता है कि उन्हें राजनीति से ज्यादा मनोचिकित्सक की आवश्यकता है। फिर जब वे सायकिल या दुपहिये वाहन पर चुनाव प्रचार के लिए निकलती हैं, जिन्हें दोनों तरफ से कमांडो आफिसर सम्भालते दौड़ रहे होते हैं ताकि वह कहीं लुढ़क न जाये, तो यह दृश्य रघुवीर यादव की कॉमेडी को भी पीछे छोड़ जाता है।..........'दीदी इस उम्र में मोदी पर गुस्सा करते हुए अपनी हड्डियों को नहीं तोड़ लेना...जुड़ना मुश्किल हो जायेगा I फिर चुनाव प्रचार के लिए खटिया पर आसन जमा कर तथा कमाण्डोज़ के कंधों पर बैठ कर गली-गली फेरा लगाना पड़ेगा।'........बेचारे कमांडोज़....??

कुछ राजनेताओं के भाष्य का स्तर और सदन के अन्दर उनके व्यवहारों को देख-सुन कर महसूस होता है कि अक्षर-ज्ञान से रहित झोपड़-पट्टी के मजदूर-पियक्कड़ों के गाली-गलौज करने वाले समूह, वस्तुतः बहुत ही शरीफ और नेताओं से बेहतर स्तर के हैं। नेताओं में वर्णसंकर संस्कृति दोषों से दोष-युक्त होने पर देशविरोधी होना, मिंयाँ खलीफा को आदर्श मानना, ग्रेटा थुंबेर्ग के आधे-अधूरे ज्ञान की प्रशंसा करना तो स्वाभाविक ही है परंतु सकल घरेलू-देसी उत्पादों की श्रेणी में आने वाले नेताओं की मानसिकता की गिरावट के लिए क्या-क्या विशेषण दिया जाये?ये मैं पाठकों पर छोड़ती हूँ।

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