Jungle Raj returns in Bihar

लालू कुनबा और बिहार का दुर्भाग्य

हाल ही में जबसे लालू पुत्रों ने कुर्सी हथियाकर नितीश कुमार की कार्यक्षमता को बंधक बनाया है, बिहार की किस्मत रसातल की ओर लगातार अग्रसर है। पहले तो जंगलराज की पुनः स्थापना हुई जिसके फलस्वरूप गुंडागर्दी, मारपीट, ह्त्या, रंगदारी, चोरी, लूट-पाट, बलात्कार आदि आम बात हो गयी है जो अब किसी अखबार के पन्ने पर कम ही आता है। सबसे बड़ी बात हुई है लालू कुनबे की सोशल मिडिया पर पकड़। अब हर पांचवें मिनट राजद या उसके अनेकानेक हैंडल से बिहार के चमकने की खबर आने लगी है। कुर्सी हथियाने के पहले महीनें ही वहाँ की स्वास्थ्य सेवा दुरुस्त हो गयी, फिर वहाँ की कृषि व्यवस्था। अब खबर आयी है कि वहाँ इंडस्ट्रीज के भरमार होने लगे हैं और एक अखबार ने तो उसके चित्र तक लगा दिए। पहले के दिनों में तो इन झूठ कार्यों का श्रेय थोड़ा नितीश कुमार को भी दिया जाता था लेकिन अब उन्हें भी अलग थलग कर दिया गया है। धन्य है लालू कुनबा।

कुछ बीते दिन

साल १९७२-७३ की बात है। पटना के कुछ छात्र कार्यक्रमों में एक असाधारण प्रतिभा वाले छात्र-यूनियन के एक गरीब नेता को देखा था जो विद्यार्थियों के बीच हँसी ठठोले का भी पात्र था पर बोलता भी अच्छा ही था। उससे मेरी व्यक्तिगत जान पहचान नहीं थी, न ही कोई ऐसा कारण था कि पहचान बनाया जाए।बाद में किसी ने बताया कि वह १९७४ के जयप्रकाश विद्यार्थी आंदोलन में तत्कालीन नेताओं की नजर में आया और उसकी किस्मत ही बदल गयी। १९७७ के लोक सभा चुनाव में उसे नवगठित जयप्रकाश जी के ‘जनता पार्टी’ का छपरा से उम्मीदवार बनाया गया और कांग्रेस के प्रत्याशी को भारी बहुमत से हराकर वह एक युवा सांसद बना। वैसे कांग्रेस को तो हारना ही था लेकिन लालू के तेज को कम नहीं आँका जा सकता था।

जयप्रकाश आंदोलन बिहार के उन्नति के तो ज्यादा काम नहीं आया किन्तु उस आंदोलन में वह गरीब परन्तु सशक्त युवा छात्र नेता जरूर सामने आया जिसका नाम था 'लालू प्रसाद यादव'। उसमें राजनैतिक प्रतिभा तो थी ही, आंदोलन के दिनों जयप्रकाश जी तथा उनके करीबी नेताओं के आगे-पीछे करते उसकी गाड़ी चल पडी, किस्मत का ताला खुल गया । 1979-80 में पार्टी के विघटन के बाद वह "जनता दल" घटक के साथ पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के आस पास ही रहा। १९८५ के चुनाव में ही उसने अपने निर्वाचन क्षेत्र में मुसलिम-यादव का एक सफल परन्तु विघटनकारी चुनावी समीकरण शुरू किया था जो काफी प्रभावी रहा। फिर १९८९ -९० में उसके तकदीर का सितारा चमका और उसे बिहार का बागडोर दे, मुख्यमंत्री बना दिया गया।

किसी भी प्रदेश की प्रगति उसके राजनितिक अवस्था, क़ानून व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ तथा औद्योगिक प्रगतिशीलता से मापी जाती है।आइये बिहार के लिए इन मापदंडों का आँकलन करें।

बिहार की राजनीति

सन १९५० के दशक में बिहार की अच्छी स्थिति थी, देश के अग्रणी और प्रगतिशील राज्यों में गिनती होती थी। राज्य में शान्ति और स्थिरता थी, राजनितिक गिद्ध बहुत कम थे। १९६१ से राजनैतिक उठा-पटक शुरू हुई और ३० सालों तक चलती रही। स्वतन्त्रता के पश्चात ४३ सालों में अल्पकालीन 'जन क्रांति, शोसलिस्ट व जनता पार्टी' के छिट-पुट सत्ता परिवर्तन को छोड़, बिहार में कांग्रेस का ही शासन था लेकिन सभी भ्रष्ट नेताओं ने मिलकर बिहार को अँधेरे में धकेल दिया था।

1990 में लालू के बिहार मुख्य मंत्री बनने के बाद उसने शासन प्रणाली को दुरुस्त करने की कोशिष भी की। अच्छी-अच्छी बातें करता था। यादव और मुसलामानों के लिए तो उसने बहुतेरे प्रावधान किए। यादव या मुसलमान जिस भी नौकरी के लिए साक्षात्कार में जाते, चुना जाना लगभग तय माना जाता था। बाद में उनहोंने पीढ़ियों से उपेक्षित पिछड़ी जाति को भी अपनी मुस्लिम यादव समीकरण में शामिल कर लिया जो अच्छा कदम था।

अब लालू का मुस्लिम-यादव चुनावी जनाधार काफी बढ़ चुका था और उसमें कुछ पिछड़ी जाति का भी समावेश हो चुका था । लालू राज में दूसरी जातियों के लिए धीरे-धीरे समस्याएँ बढ़ने लगी। बहुतों जमींदारों के जमीन जोत रहे कुछ खेतिहरों को उन जमीन के पट्टों का कब्जा मिलने लगा। पिछड़ी जाति को कानूनी रूप से सशक्त किया गया लेकिन उच्च वर्ग की अवहेलना होने लगी। बिहार में ब्राह्मण या राजपूत होना अभिशाप बनने लगा। कुछ ब्राह्मण ने अपने जाति नाम रखने ही बंद कर दिए ताकि किसी नौकरी में आवेदन के दौरान उसकी जाति का पता न चल सके । उच्च जाति के गरीबों की तो मानो शामत ही आ गयी थी। बिना मोटी रिश्वत के नौकरी नामुमकिन सा हो गया। बिहार में एक नया वर्ग-कटुता बढ़ने लगा था।

अब लल्लू बिहार का बेताज बादशाह था। भ्रष्टाचार में लिप्त, अपनीं मनमानी करता था। अब लल्लू के बहुतेरे यादव लठैत, अंडरवर्ल्ड के बन्दूक और पिस्तौलधारी मुसलमान और बाएँ-दाएँ फिरौती गैंग थे। वह घोटालों पे घोटाले करने लगा और आवाज़ निकालनें वालों के मुँह बंद कर देता। उसने चांदी के जूते और पैसे के बल, पैरवी करनें के लिए कई चाटुकार रख लिए थे। बाँकी आगे पीछे करने और प्रवक्ता के तौर पर कुछ ऊँची वर्ग के भी लोग रख लिए जिनमें कुछ विद्वान् भी शामिल थे और दुर्भाग्यवश अभी भी हैं I कुछ तो पालतू पशु की भाँति अब भी उन्हीं का राग अलापते हैं। लल्लू की चांदी ही चांदी थी। शासन में मनमानी करने लगा। शासन व्यवस्था प्रजातंत्र से हटकर एकतंत्र सी हो गयी। तभी ‘चारा घोटाला’ सामने आया और बेचारे को 1997 में जेल जाना पड़ा। जेल तो चला गया परन्तु अपनी अंगूठा छाप पत्नी रबड़ी देवी को मुख्य मंत्री के कुर्सी पर मूर्ती की तरह आसीन कर गया (और शायद इसीलिए सम्प्रति राष्ट्रप्रति प्रत्याशी को तेजस्वी ने अपनी माँ के अनुरूप मूर्ति शब्द का प्रयोग किया था) । बिहार में अब भी उसी का बोलबाला था परन्तु जेल के सलाखों के पीछे से। उसकी मनमानी पर शासन की मोहर लगाने के लिए रबड़ी का अंगूठा काम कर रहा था। उसका दबदबा बरकरार था और मुस्लिम-यादव-दलित ‘वोट बैंक’ की कृपा से यह दबदबा २००५ तक बना रहा। लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। विकास ठप्प, रोजगार ठप्प, आमदनी ठप्प, शिक्षा तो कब की ठप्प हो चुकी थी।

भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार के मामले में बिहार पहले से ही अव्वल नंबर का था लेकिन लल्लू-रबड़ी राज में यह बद से बदतर हो गया था I भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ता गया। ‘दूसरे नंबर की आमदनी’ से ज्यादातर अधिकारी अपना जेब भरते थे । वैसे पुलिस प्रसाशन तो कमोवेश हर राज्य में ही भ्रष्ट था, बिहार में यह चरम सीमा पर था । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि आवेदनकर्ता कौन है, किसी भी सरकारी कार्य के लिए अधिकारियों के जेब गर्म करने ही पड़ते थे । अनुमान लगाइए कि ७० के दशक का एक ‘चप्पल छाप गरीब’ छात्र नेता लालू आज हज़ारो करोड़ों का स्वयं ही मालिक है और अपने सारे सगे सम्बन्धियों को करोड़पति बना दिया है। यह सिर्फ लालू की ही बात नहीं, ज्यादातर मंत्रियों या अधिकारियों का यही हाल था । राज्य का कोई भी डिपार्टमेंट ऐसा नहीं जिसमें भ्रष्टाचार का दीमक न लगा हो। लालू-रबड़ी ने सब चौपट कर दिया था I

क़ानून व्यवस्था

बिहार की क़ानून व्यवस्था लल्लू-राबड़ी के १५ सालों में विल्कुल ही चरमरा गयी थी। पुलिस आम जनता के किसी काम का नहीं था। उच्च वर्ग के सशक्त लोगों ने अपनी एक निजी 'रणवीर सेना' बना ली जो पिछड़ी जाति द्वारा किया जानें वाला अतिशयो को रोक सके। लेकिन जल्द ही बहुत सारे ऐसे मामले आने लगे जिसमें रणवीर सेना ने पिछड़ी जाति पर हमला किया था। अब बिहार में ‘जातिगत वर्ग कटुता’ एक वास्तविकता हो गयी थी जिसमें यादवों और मुसलामानों का दबदवा था। इनके पास अवैध बंदूकें थीं साथ में लठैत भी थे और बाद में इन्होंने पैसे वाले लोगों को अगवा कर फिरौती वसूलने का धंधा भी शुरू कर दिया। यादवों का अत्याचार इतना बढ़ गया था कि तत्कालीन 'लल्लू राज्य' की कुव्यवस्था को दिखाने के लिए फिल्म निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा को "गंगाजल" बनानी पडी थी। सवर्ण, अमीर और व्यापारी वर्ग डरे सहमें रहते थे और देर-सवेर बाहर निकलनें से कतराते थे। उन्हें अपने परिवार की सुरक्षा तथा यादव-मुसलमान आतताइयों से अपना सम्मान बचाना अत्यावश्यक था। संक्षिप्त में बिहार में जंगल राज स्थापित था।

पुलिस व प्रशासन 'भ्रष्ट तंत्र' का गुलाम था। चूँकि लालू के भ्रष्ट तंत्र के द्वारा ही गुंडागर्दी, अपहरण, फिरौती, क़त्ल आदि की वारदात की जाती थी; एक तरह से पुलिस व प्रशासन भी इसका हिस्सा बन चुकी थी।आम लोगों के लिए पुलिस किसी भी तरह के भरोसे के लायक नहीं रह गया था। पुलिस तंत्र में ही भ्रष्टाचार इतना बढ़ चुका था कि दो नंबर की कमाई (घूसखोरी ) एक अमान्य मानक बन गया था।पुलिस की गतिविधियाँ गिद्धों की भाँति हो गयी थी।वे किसी न किसी तरह हर चीज से अपनी हिस्सेदारी मार ही ले जाते थे।क़ानून व्यवस्था ठप थी और इससे लोगों का विश्वास उठ चुका था।

शिक्षा व्यवस्था

बिहार में सदैव से ही उच्च श्रेणी तकनीकी संस्थानों की कमी रही थी। सरकारी विद्यालयों में धीरे-धीरे पढ़ाई का स्तर गिरता गया और प्राइवेट ट्यूशन व कोचिंग लगभग हर विद्यार्थी के लिए आवश्यकता बन गयी और यह एक व्यवसाय बन गया। अच्छी शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यार्थी दूसरे राज्यों में आश्रय लेने लगे। मेधावी शिक्षकों के सेवानिवृत होने के बाद नयी पीढ़ी के आरक्षित शिक्षकों में गुणवत्ता की कमी थी जिससे बिहार की शिक्षा प्रणाली पर बहुत बड़ा कुठाराघात हुआ। कर्पूरी ठाकुर ने तो अंगरेजी फेल करने वाले विद्यार्थियों को मैट्रिक पास करने का नियम ही बना दिया। उनहोंने शिक्षा का स्तर ही घटा दिया। बाँकी रहा सहा आरक्षण ने समाप्त कर दिया। शिक्षकों का स्तर घटने से शिक्षा व्यवस्था की मानो कमर ही टूट गयी। लालू रबड़ी राज में बिहार की हर स्तर की शिक्षा व्यवस्था देश में निम्नतम में से थी।विद्यालयों की स्थिति जर्जर थी और विद्यार्थी नदारत।कालेज में पढ़ाई नहीं होती।विद्यार्थी परिक्षा में चोरी से पास होते।तकनिकी शिक्षण प्रशिक्षण पर भी इसका प्रतिकूल असर बढ़ता गया।सब मिलाजुलाकर बिहार की शिक्षा प्रणाली अंतिम साँसें गिनने लगी थी। इन परीक्षाओं में भी विद्यार्थियों को चोरी और धांधली से पास कराया जाता था जिसके दृश्य शर्मसार करने वाले होते थे।

People helping students in cheating in Bihar examinations

स्वास्थ्य सेवा

बिहार में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पहले से ही नगण्य सी थी । साठ के दशकों से ही अस्पतालों की बदहाल स्थिति चली आ रही थी। दवा और रासायन की आपूर्ति कम थी। डॉक्टर अस्पताल न जाकर ज्यादातर अपना व्यक्तिगत क्लिनिक चलाते थे या फिर रोगियों को बेहतर चिकित्सा का प्रलोभ देकर अपनी क्लिनिक में ही आने को कहते थे । अगर कोई रोगी अस्पताल जाता भी था तो उनको जाँच और दवाई बाहर से ही करानी पड़ती थी । जो भी कुछ सरकारी अस्पताल और डिस्पेंसरी थे वे लालू राबड़ी के राज में जर्जर हो गए। लल्लू राबड़ी राज में उन्होंने भी अपने आप को भ्रष्टाचार नामक ‘राज धर्म’ में लिप्त कर लिया। बिहार में आम तौर से दवा या तो अस्पताल पहुँचती ही नहीं या पहुँचते ही गायब हो जाती। माना जाता है कि इसका कमीशन पूरे तंत्र में बँट जाता था।

लालू-राबड़ी का भ्रष्टाचारी हाथ जिन-जिन चीजों पर पड़ा वह गोबर हो गया। गोबर होने का उदाहरण सहरसा के इस चन्द्रायण अस्पताल का देखा जा सकता है। माना जाता है कि इसकी आधी रकम लालू रबड़ी के खाते में चले गए और अस्पताल के एक छोटे से भाग को आंशिक रूप से बनाकर उदघाटन कर वे सारे पैसे हजम कर गए। बिहार की जीडीपी और वैयक्तिक आय घटती गयी। लोग जीविका के लिए पंजाब, हरियाणा, बंगाल और अन्यत्र पलायन करने लगे। बिहार की दुर्दशा होती जा रही थी।

आतताई का अंत

हर आतताई का अंत होता है और लालू-रबड़ी का भी हुआ। २००५ में परिवर्तन की एक आंधी आई और आतताईयो को उड़ा ले गयी। बिहार में JDU - BJP का सुसाशन आया। क़ानून व्यवस्था धीरे-धीरे ही सही, ठीक की गयी। बहुतेरे आतताइयों का एनकाउंटर हुआ या फिर जेल। लालू-रबड़ी का फिरौती राज ख़त्म हुआ। लोगों के मन से भय धीरे धीरे निकला और विकास का दौर शुरू हुआ। बिहार में शहर-शहर विश्व स्तरीय सड़कें बनी। कई कल्याणकारी प्रोजेक्ट्स की शुरुआत हुई । कृषि व्यवस्था सुधरी। कुछ पुराने और जर्जर इंडस्ट्रीज का जीर्णोद्धार भी हुआ। भ्रष्टाचार में भी कमी आयी।

विद्यालयों को सुधारनें का काम भी हुआ लेकिन शिक्षण का घटिया स्तर नहीं सुधरा। जो कुछ विद्यालय या शिक्षण संस्थान थे, जर्जर स्थिति में, सिर्फ नाम के लिए ही थे। नितीश बाबू के राज में कुछ सरकारी मेडिकल, इंजिनीरिंग और पॉलिटेक्निक कॉलेज खुले। लेकिन ऐसा माना जाता है कि प्रायोगिक उपकरण व रिजर्वेशन के तहत शिक्षकों का अनुभव व स्तर असंतोषप्रद रहा है। इसका नतीजा यह हुआ कि उच्च तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता भी नीचे ही रहा। होनहार विद्यार्थी अपना नामांकरण करवा कर कोटा या अन्य शहर जाकर पढ़ते और सिर्फ वार्षिक परिक्षा के लिए विद्यालय आते थे। शिक्षा में आरक्षण ने शिक्षकों का स्तर इतना घटा दिया है कि मानो उसकी कमर ही टूट गयी है। यह किसी भी उपचार के परे चला गया है। आरक्षण की व्यवस्था अन्य प्रदेशों में भी है लेकिन कहीं भी पठन-पाठन का स्तर इतना नीचे नहीं है।

जंगल राज का पुनरागमन

साल २०१४ का वह दौर आया जब नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद तत्कालीन बिहार मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने लालू प्रसाद के राजद तथा कुछ अन्य दलों के साथ एक महागठबंधन बनाया (जिसे लोग महा-ठगबंधन भी कहते थे) और २०१५ का चुनाव RJD के मुस्लिम-यादव समीकरण की बदौलत जीता।लालू के जेल होने के कारण उसके पुत्र तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री बनाया। बस फिर क्या था। कुछ ही महीनें में लूटपाट, कत्लेआम, फिरौती और अराजकता फिर से शुरू हो गया। डर का माहौल पुनः आ गया। बिहार में पुनः जंगलराज स्थापित हो गया। उधर लालू और उसके कुनबे पर २००५-०९ के अपने रेल मंत्री रहने के दौरान भ्रष्टाचार के अनेकों मामले चल रहे थे जिससे सरकार की थू-थू भी हो रही थी। साल २०१७ में गुंडाराज से छुटकारा पाने के लिए नितीश कुमार ने RJD का साथ छोड़, बीजेपी के साथ पुनः सरकार बनाकर क़ानून व्यवस्था को पटरी पर लाया।

साल २०२० में बीजेपी के साथ मिलकर वे चुनाव जीतकर कम सीट मिलने के बावजूद भी पुनः मुख्यमंत्री बने।अब नीतीश की छवि धूमिल होने लगी थी और एक जागरूक युवा मुख्यमंत्री के लिए आवाजें उठने लगी थी।उनके मन में देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए भी उत्सुकता आयी जो NDA में पूरा नहीं हो सकता था। बस क्या था। उन्होंने पलटी मारी और बीजेपी का साथ छोड़ राजद के साथ मिलकर एक नयी सरकार बनाई। लल्लू पुत्र तेजस्वी को फिर उपमुख्यमंत्री बनाना पड़ा। शपथ लेते ही पुनः जंगलराज की छवि दीखनें लगी। बिहार में दिन दहाड़े लूटपाट, ह्त्या और डर का माहौल बनने लगा (पढ़ें “नितीश ने ली पलटी मार, फिर से जंगलराज सरकार।“ https://articles.thecounterviews.com/articles/u-turns-in-bihar-nitish-govt/) I बिहार के नए मंत्रीमंडल में कथित भ्रष्टाचारियों, घोटालेबाजों तथा फिरौतीबाजों की भरमार है यहाँ तक कि क़ानून मंत्री पर वारंट लटका हुआ है। बिहार का भगवान ही भला कर सकते हैं।

बिहार और वहाँ के जनता की बदकिस्मती रही है कि लालू के राजनैतिक धरातल पर आने से पहले ही वहाँ की शासन व्यवस्था चरमराने लगीं थी। जयप्रकाश आंदोलन तो बिहार से शुरू हुआ लेकिन इसका अच्छा परिणाम मिलने के वजाय बिहार को लालू जैसा एक ऐसा भ्रष्ट और जातिगत व धर्मान्धता की राजनीति करने वाला व्यक्ति मिला जिसका दुष्परिणाम आज तक बिहार झेल रहा है। आज जबकि देश के लगभग सभी भागों में इस्लामिक धर्मान्धता बढ़ रही है बिहार में इसकी आँच स्वाभाविक है और आने वाले दिनों में अगर राजद का जंगलराज स्थापित हो गया तो इसके दुष्परिणाम सबों को भुगतने पड़ेंगे। लालू बिहार की राजनीति में दुर्भाग्य बन बैठा है।

इस लेख को प्रकाशन हेतु भेजने से ठीक पहले पता चला कि बिहार मुख्यमंत्री ने विवादित क़ानून मंत्री का विभाग गन्ना मंत्रालय से अदल बदल किया है। अब क़ानून मंत्री शमीम अहमद होंगे जो मुस्लिम समुदाय में शरिया क़ानून के हिमायती हैं ।

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