Bihar politics

नितीश बाबू को पलटी तो मारनी ही थी

लल्लू यादव का पुत्रमोह बिहार की राजनीति को ऐसा प्रभावित कर रहा था कि अगर नितीश बाबू राजद के साथ रहते तो उन्हें अपनी कुर्सी और राजनीति दोनों से ही हाथ धोना पड़ सकता था । लल्लू और तेजस्वी दोनों ही सरकारी कामकाज में इस तरह हस्तक्षेप कर रहे थे मानो जंगल राज पुनः आ गया था। बिहार की राजनैतिक पटल पर राक्षसी वृत्ति वाला एक ‘तेजस्वी यादव रूपी रावण’ पनप रहा था। हाल के अपने "खेला होगा" वयानोँ से वह संकेत दे चुका है कि वह बिहार में कुछ राजनैतिक उथल - पुथल करवानें की सोच रहा है।

मिलते संकेत

बिहार के अति अनुभवी पलटीमार मुख्यमंत्री नितीश बाबू को जनवरी २०२४ के अंत तक लल्लू यादव के राजद से कुछ ऐसे संकेत मिलने लगे थे मानो उन्हें बिहार की राजनीति से इस तरह बेदखल कर दिया जाएगा जैसे दूध से मख्खी बाहर फेक दिया गया हो। यह उनको कतई मंजूर नहीं था। उनकी लगभक ४० सालों की राजनैतिक अनुभव दाँव पर लगी थी। उनहोंने तभी एक बार फिर से पलटी मारने का मन बना लिया था । तभी से राजनैतिक गलियारों में अनुमान लगाया जा रहा है कि नितीश बाबू बिहार की महागठबंधन (या ठगबंधन) की दलगत और जातिगत नीति की संकीर्णता से नाता तोड़कर एक बार फिर मोदी जी के NDA से नाता जोड़ने वाले हैं । 

लेकिन बीजेपी से २०२२ में सम्बन्ध तोड़कर RJD का दामन थामने वाले पलटीमार नेता के साथ ऐसा क्या हुआ कि उन्हें पुनः पलटी मारनी पड़ी ? इंडी गठबंधन के सूत्रधार माने जानें वाले नितीश कुमार का हाल ही में मोदी जी को सत्ता से हटाने के लिए एक नए गठबंधन बनाने का राजनैतिक समीकरण कब, कहाँ और कैसे बिगड़ा ? एक समय इंडी गठबंधन के २०२४ के विधान सभा चुनाव के संयोजक-संचालक माने जानें वाले नेता जो प्रधानमंत्री बनने का प्रवल दावेदार था, मोह भंग कैसे हुआ ? आइए इन सब गांठों को खोलनें का और गुत्थी को समझनें का प्रयत्न करें।

२०२२ में जब नितीश ने चारा चोर लालू की पार्टी राजद के साथ जानें के लिए पलटी मारी थी तो उनहोंने बीजेपी पर आरोप लगाया था कि उनकी पार्टी को कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा था (read https://thecounterviews.in/articles/u-turns-in-bihar-nitish-govt/) । पलटी मार कर जब उन्होंने राजद के साथ सरकार बनाया तो लालू ने उन्हें आश्वासन दिया था कि उन्हें आगामी लोकसभा में प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार बनाया जाएगा। इससे कुछ JDU नेता भी खुश थे की नितीश बाबू भारत के प्रधानमंत्री बन जाएंगे। इसे एक प्रबल संभावना जताने वाले पोस्टर पटना के सड़कों पर लग भी गए । लालू की इस दूरगामी चाल से विरले ही कोई अवगत थे। यह लालू यादव की अपने नवीं-फेल पुत्र तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने की महत्वाकांक्षा थी जिससे नितीश कुमार को बिहार की राजनीति से बाहर कर तेजस्वी को मुख्य मंत्री बना कर बिहार सरकार की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में ले लेने की महत्वाकांक्षा थी । इससे साँप भी मर जाता और लाठी भी न टूटती । लेकिन तब नितीश जी की भी काफी आलोचना हुई कि मुट्ठी भर सांसद के साथ वे भारत का प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न कैसे देख सकते हैं ? इसके लिए उन्हें मीडिया के सामने आकर सफाई भी देनी पड़ी थी। उन्हीं दिनों राहुल गांधी की राजनीति काफी कमजोर थी और उनकी नीतियों से उबकर पार्टी के कई वरिष्ठ नेता जैसे गुलाम नबी आजाद, सिब्बल आदि उन्हें छोड़कर जा रहे थे। कोन्ग्रेस्स पार्टी कमजोर होती जा रही थी और नितीश व लल्लू को लग रहा था की वे कांग्रेस को अपने पीछे लेकर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी कर सकते हैं।

प्रधानमंत्री बनने की सुगबुगाहट

मीडिया के सामने नितीश बाबू ने PM उम्मीदवारी को लेकर जो भी सफाई दी हो लेकिन मन में सुगबुगाहट तो थी ही कि वे राहुल गांधी के विकल्प के रूप में उभर सकते हैं। वे देश के कई विपक्षी नेता से मिलकर एक गठबंधन बनाने में इतने व्यस्त हो गए की दिनों दिन वे राज्य से बाहर रहते थे और इस तरह बिहार-शासन का बागडोर अप्रत्यक्ष रूप से राजद के लालू परिवार के हाथों में चली गयी और एक तरह से जंगल राज की पुनर्स्थापना हो गयी। आए दिनों ह्त्या, लूटपाट, रंगदारी, जिहादी गतिविधियाँ और भ्रष्टाचार का पुनः बोलवाला होता गया। बात सामने आने लगी कि वहाँ सरकारी नौकरी दिए जानें का सारा श्रेय तेजस्वी यादव लेते गए और उन भर्तियों के एवज में लाखों रुपया घूस व जमीन लिखवाने का सिलसिला चल पड़ा। इस कला में लालू को पहले से महारथ हासिल था जिसकी जाँच अभी चल ही रही है। हालाँकि गृह मंत्रालय नितीश बाबू के पास था लेकिन तेजस्वी की मनमानी चलने लगी थी और एक तरह से वही पुलिस तंत्र भी चला रहे थे। बिहार में एक नया रावण खड़ा हो रहा था जिसकी थू-थू नितीश बाबू ही झेल रहे थे (पढ़ें "बिहार में राक्षस रूपी रावण का बढ़ता प्रकोप", https://thecounterviews.in/articles/bihar-ravan-tejaswi-nitish-demon-atrocities/) ।

बनते और बिखरते सपनें

२४ मार्च २०२३ को अपनी लोकसभा सदस्यता खोने और २ साल की सजा मिलने के बाद राहुल गांधी भावी प्रधानमंत्री की दौड़ से बाहर हो गए। इससे देश के लगभग सारे प्रमुख विपक्षी नेताओं की मानो लॉटरी निकल पड़ी। नितीश, ममता, केजरीवाल, अखिलेश आदि सब अपने आप को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगे। साथ ही कर्नाटक के मई २०२३ चुनाव नतीजे के बाद देश में एक राजनैतिक भूचाल सा आ गया और रातों रात कांग्रेस की छवि बढ़ गयी। अब लगभग सारे विपक्ष को लगने लगा कि २०२४ के लोकसभा चुनाव में अगर कोई मोदी सरकार को हरा सकता है तो वह राहुल गांधी का कांग्रेस है। कांग्रेस उन सबों को एक सीढ़ी जैसी लगने लगी थी जिस पर चढ़ कर वे अपनी अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंक सकते थे। ऐसे ही हालातों में विपक्षी गठबंधन की पहली बैठक जून २०२३ में पटना में हुई थी। सबों को कांग्रेस रूपी एक मोहरा मिल गया था जिस पर बैठ कर राजनैतिक सवारी की जा सकती थी । लेकिन गठबंधन की जुलाई २०२३ की बैंगलोर की दूसरी बैठक में ही नितीश बाबू का मोह भंग तब हो गया जब गठबंधन का संचालन कांग्रेस ने अपने हाथों में ले लिया। वे और लालू विचलित थे, बैठक को बीच में ही छोड़कर चले गए।

इंडी गठबंधन के भावी प्रत्याशी प्रधानमंत्रियों के ऊपर बिजली तब गिरी जब अगस्त में राहुल गांधी की सदस्यता उच्चतम न्यायालय द्वारा बहाल कर दी गयी। नितीश, ममता, केजरीवाल, अखिलेश आदि सबों के प्रधानमंत्री बनाने के सपनें चूर-चूर हो गए। अब कांग्रेस ने भी अपने पैतरे बदले और गठबंधन की बागडोर अपने हाथ में ली। तब तक नितीश बाबू का पूरी तरह से मोह भंग हो चुका था। उन्हीं दिनों RJD द्वारा उनके JDU पार्टी में विभाजन के षड्यंत्र का भी समाचार उठने लगा था कि ललन सिंह कई विधायकों के साथ तेजस्वी के साथ मिलकर कुछ उलट फेर करेंगे। नितीश जी का प्रधानमंत्री बनाने का सपना तो टूट ही चुका था, अब मुख्यमंत्री की कुर्सी भी खतरे में पड़ने जा रही थी। इसीलिए उन्होंने पहले ललन सिंह का स्तीफा ले,पार्टी अध्यक्ष बन अपनी पकड़ मजबूत करने का प्रयास किया। लेकिन राजनैतिक जोंक माने जानें वाले लालू पर किसी भी तरह से विश्वास नहीं किया जा सकता था। अपनी ही जाति बिरादरी के JDU के कुछ विधायक उनके संपर्क में थे। यही सबसे बड़ा कारण है कि मुख्यमंत्री नितीश ने एक बार फिर से पलटी मारी। लगता है लालू का पुत्र मोह ही तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने के आड़े आ गया। वैसे और भी कुछ कारण हो सकते हैं जिसनें नितीश जी को पलटी मारने पर वाध्य किया। इसमें तेजस्वी यादव का बढ़ता कद, सरकारी तंत्र में लालू यादव का बढ़ता हस्तक्षेप, लालू के परिवार व सम्बन्धियों का सरकारी तंत्र में बढ़ता प्रभाव आदि भी शामिल है। यही कारण है कि नितीश ने अपने २५ जनवरी के भाषण में संकेत दिया था कि लालू अपने परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे हैं।

ऐसा माना जाता है कि नितीश बाबू ने MP, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की भारी हार के बाद ही मन बना लिया था कि वे मोदी के साथ ही रहेंगे। फिर सीट बंटवारे पर सिर फुटौव्वल के बाद जिस तरह ममता और केजरीवाल ने किनारा कर लिया, गठबंधन में कुछ भी बाँकी नहीं रह गया था। इसे टूटना ही था। साथ ही गठबंधन के कुछ घटकों द्वारा गलत बयानबाजी भी हो रहे थे। उदयनिधि और स्टालिन ने हिन्दुओं को गाली दी तो केरल के घटकों द्वारा देश द्रोह जैसे वक्तव्य भी आ रहे थे। ऐसा प्रतीत होने लगा था मानो इंडी गठबंधन देश के गद्दारों का समूह है (पढ़ें "देश के गद्दार", https://thecounterviews.in/articles/chors-scamsters-traitors-of-india/) I उधर ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ में शायद पिछले यात्रा का अन्याय ठीक करने निकले राहुल गांधी के पास इतना समय नहीं था कि वे गठबंधन के अन्य नेताओं से संवाद करते। लगता है इंडी गठबंधन का सिर्फ कंकाल रह गया है, प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। इसीलिए इससे पहले कि लालू और तेजस्वी बिहार में उलट - फेर के कोई और चाल चल पाते, नितीश ने पलटी मार ली। ऐसा भी माना जाता है कि लोकसभा २०२४ चुनाव में नितीश जी की पार्टी को सिर्फ १० सीट दिए जा रहे थे जिससे पूरी पार्टी काफी नाराज थी और यह उन्हें मान्य नहीं था।

बिहार की मुख्य समस्याएँ

उधर बीजेपी भी इस बार फूँक फूँक कर कदम आगे बढ़ा रही है। उनके सामने भी प्रश्न है कि क्या नितीश पर भरोसा किया जा सकता है ? लेकिन यह उनकी वर्तमान मजबूरी है। बिहार के ४० लोक सभा सीटों में से ज्यादातर जीतने के लिए उन्हें नितीश का साथ चाहिए था। जिस नितीश कुमार को पिछले डेढ़ साल से वे पानी पी पी कर कोस रहे थे उनसे पुनः हाथ मिलाने में पार्टी के कई नेता झिझक रहे हैं। लेकिन लगता है कि मोदी-शाह-नड्डा के निर्देशानुसार पार्टी के कार्यकर्ता बदले हालात से समझौता कर लेंगे। संभव है आने वाले वर्षों में JDU का ह्रास हो जाए और बीजेपी ही बिहार की वैकल्पिक पार्टी हो जाए और यहीं एक खतरा है। आज के दिन बिहार में BJP का कोई ऐसा नेता नहीं जो साफ़ छवि वाला एक गतिशील, जागरूक युवा हो (पढ़ें https://thecounterviews.in/articles/development-of-bihar/) । आज बिहार में अनेंको समस्याएँ हैं जैसे भ्रष्टाचार, विकास का अभाव, गरीबी, बेरोजगारी, ‘M-Y ब्रिगेड’ की अराजकता, बांग्लादेशी और रोहिंग्याओं का अवैध प्रवास, तकनिकी शिक्षा का अभाव, कृषि तकनिकी में जड़ता, बिहार में निवेशकों का अभाव आदि-आदि, जिन्हें एक प्रगतिशील नेता ही सुलझा सकता है। 

उपसंहार

अगर संक्षेप में कहा जाए तो बिहार के पलटीमार बाबू का पुनः पलटी मारना लगभग तय था । राजद से उन्हें विश्वासघात का डर था। उधर लल्लू यादव को तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने का पुत्रमोह ऐसा सता रहा है कि अगर वे राजद के साथ रहे तो उन्हें अपनी कुर्सी और राजनीति से हाथ धोना पड़ सकता है। इस पलटी के अनेकों कारण हैं जिसमें इंडी गठबंधन में उन्हें अपना राजनैतिक भविष्य दाँव पर लगा होना भी हो सकता है। उधर बीजेपी आने वाले २०२४ लोकसभा चुनाव में नितीश के साथ रहने का फायदा भी देख रही है। राजनैतिक फायदा नुक्सान जो भी हो, नितीश बाबू की राजनैतिक छवि पर तो निस्संदेह असर पड़ेगा। वैसे भी उनके सोच में शायद ही कुछ नयापन हो कि बिहार को कैसे प्रगति के रास्ते पर लाया जाए। न उनके पार्टी में और न ही बीजेपी में कोई ऐसा साफ़ छवि का प्रगतिशील युवा चेहरा है जो बिहार का उत्थान कर सके जिसकी आज सख्त जरूरत है। ऐसा लगता है कि मोदी, शाह या नड्डाजी को लीग से हटकर एक ऐसा नेता लाना पडेगा तो आने वाले सालों में बिहार की दिशा और दशा तय कर सके।

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