Cat & mouse game

धारावाहिक: मेरी, तेरी, उसकी बातें: छुप्पम-छुपाई चूहे-बिल्ली की (भाग-6 )

चूहों की सूंघने की शक्ति विलक्षण होती है। ये आपने खतरों को अपने संवेदन तंत्र मूंछों से ही भाँफ जाते हैं। इसीलिए अपने पीछे लगे साँप,बिल्ली या खतरनाक जानलेवा जानवरों से समय रहते बच जाते हैं। ऐसे देखा जाए तो चूहों की बढ़ती तादाद गाँव एवं खुली जगह में परेशानी का शबब नहीं है क्योंकि ये खाद्य श्रृंखला के अंतर्गत के कई जानवरों के लिए रुचिकर भोज्य पदार्थ होते हैं, जिसके कारण प्रकृति में प्राकृतिक रूप से इनका संतुलन बना रहता है।

वस्तुतः मनुष्य जिन प्राणियों को अपना दुश्मन मानते हैं (जिहादी मुस्लिमों के अलावे) प्रकृति संरक्षण एवं मानवता की भलाई के लिए ही ब्रह्मा द्वारा रचे गए हैं। परन्तु घर के अंदर चूहों के रहने से ज्यादा खतरा साँपों के आने का होता है। गाँव में चूहे-बिल्ली-साँप यदि खिसक कर आ जाते हैं तो नेवले भी बिल बना कर आँगन में घूम-घूम कर चले जाते हैं इसलिए साँप का आना सम्भवतः प्रतिबन्धित हो जाता है। गाँवों में साँप की तुलना हवा से भी की जाती है जो अचानक दिखते हैं एवं गायब भी हो जाते हैं।

सहनशीलता एवं सहअस्तित्व का जीता-जागता उदाहरण देखना हो तो भारत में कहीं भी हिन्दुओं के बीच देखा जा सकता है। हिन्दू एवं हिन्दू धर्म का पालन करने वाले लोगों को अपने दुश्मनों, इस्लामी जिहादियों एवं ईसाई धूर्तों के अत्याचारों को झेलते हुए भी उन्हें खाना खिलाते हुए पालने की ऐसी आदत हो गयी है कि वे सभी खतरों को चुपचाप झेल लेते हैं। अतः बिच्छू, चूहे, बिल्ली, कुत्ते, साँप, नेवले, गीदड़, लकड़बघ्घे, भेड़िए, गिद्ध आदि जो प्रकृति को स्वच्छ एवं सुरक्षित करने वाले जीव-जंतु हैं, इनसे डरने की जरूरत ही नहीं होती है।

गाँवों में सबसे ज्यादा सुरक्षित कमरे में अनाज ही रखे जाते हैं। कमरा बड़ा हो तो उसी कमरे में एक-दो चौकी लगा कर या खाट लगा कर उस पर सोने के लिये बिस्तर भी लगा दिया है। अनाज की बोरियों के जमावड़े प्रायः छतों की ऊँचाई तक को लगभग छूते हुए होते हैं। इन्हें करीने से इस तरह सजाये जाते हैं कि बोरियों के बीच थोड़े जगह भी रहते हैं जिसके बीच से हवा,चूहे एवं छोटी बिल्लियाँ भी आर-पार जा आ सकती हैं। इसका वैज्ञानिक कारण तो मुझे पता नहीं है परंतु बचपन में बोरियों के ऊपर चढ़ कर छत छूना अपना मनोरंजक खेल था।

गाँव में कुत्ते-बिल्लियों को शहर वासियों के तरीके से पाला नहीं जाता वे अपने आप पल जाते हैं। प्रायः हर दरवाजे पर दो-चार कुत्ते बड़े ठाठ से बैठे रहते हैं एवं घरों के अंदर बिल्लियाँ घर के सदस्यों की तरह ही मौजूद होते पलते रहते हैं। बचा हुआ खाना, बचे हुए दूध इनके खाने के बर्तन में उड़ेल दिया जाता है, इतने से ये संतुष्ट हो जाते हैं। थोड़े से भोजन एवं संवेदना के फलस्वरूप ये कुत्ते-बिल्ली आदि बहुत ही वफादारी से रात में सतर्क पहरेदार बने पहरा देते रहते हैं। चूहे किसी के लिए पालतू नहीं होते फिर भी घर के अन्दर मौजूद होते ही हैं। चूहों का प्रकोप रसोई घर के सब्जियों को कुतरने के अलावे अनाज के भंडारण वाली जगहों पर भी होता है। बोरियों में छोटा छेद कुतर कर, अनाज गिराते एवं खाते भी रहते हैं। गाँव के छोटे चूहों को हम मुसरी भी कहते थे।

गाँव में अनाज के बोरियों वाला कमरा हम बच्चों के कैरम खेलने का भी पसंदीदा स्थान था। यहाँ हम चार-छः बच्चे चौकी पर कैरम रख, चारों ओर बैठ कर खेल सकते थे। ऐसा मानना था कि बच्चों के शोरगुल के कारण दिन में चूहों का बोरी कुतरना कुछ बाधित होता रहता है इसलिए भी हमें प्रायः उसी बड़े कमरे में खेलने के लिए उत्साहित भी किया जाता था। खेलते-खेलते हम बच्चों ने चूहों को भी बोरी के ऊपर-नीचे चलते देखा, जाने कैसे गंध सूँघते ही बिल्ली कूद कर बोरी के पास पहुँच गयी। चूहा भाग कर बोरियों के बीच छुप गया था। बिल्ली ने इत्मीनान से बोरियों का चक्कर लगाया, बोरियों के बीच की जगह में घुसने की कोशिश की एवं असफल होने पर वहीं बैठ गयी। थोड़ी ही देर में चूहा फिर बाहर आ गया एवं बोरी कुतर कर, उससे अनाज के दाने गिराने लगा। आवाज होते ही बिल्ली सतर्क हो ऊपर कूदी थी लेकिन चूहा फिर से बाल-बाल बच गया था, वह पुनः जाने कहाँ बोरियों के बीच छुप कर बैठा था कि हमें भी नजर नहीं आ रहा था। बिल्ली भी पुनः चारों ओर चक्कर लगा कर,बोरियों के बीच घुसने का अथक प्रयास कर पुनः घात लगा कर बैठ गयी थी। हम सभी बच्चों का ध्यान कैरम से हठ कर चूहे बिल्ली के छुपम-छुपाई वाले खेल की ओर चला गया था।

हमारे बीच बाजी लग चुकी थी कि बिल्ली थक कर भाग जाएगी या वह बार-बार दिखने-छुपने वाले चूहे को पकड़ कर खाने के लिए ले जाएगी? हम सभी इत्मीनान से प्रतीक्षा कर अपने-अपने तर्क दे रहे थे। काफी देर तक ठहर-ठहर कर ये रोमांचक छुपम-छुपाई का खेल चलता रहा था। हम सभी बच्चे अच्छे दर्शकों की भाँति खेल के मजे लेते रहे। अपने-अपने अनुमानित दृष्टिकोण एवं वक्तव्य, अति कुशल वक्ता की तरह या क्रिकेट कमेंट्री देने वाले कमेंटेटर की तरह दिए जा रहे थे । उनकी छुपम-छुपाई, कूदना-भागना देख अति आनंद आ रहा था। बिल्ली शायद थक चुकी थी, उसी समय हलचल हुई देखा बिल्ली बोरियों के ऊपर जा कर चुपचाप बैठ गयी। हमें लगा कि चूहे-बिल्ली का खेल खत्म हो चुका है। हम वापस कैरमबोर्ड पर अपनी गोटियों पर निशाना लगाने लगे परन्तु एकाएक बिल्ली उछल कर झपट पड़ी, इससे पहले कि हम कुछ समझ पाते और देख पाते कि बिल्ली ने चूहा पकड़ने के लिए कौन सा दाँव लगाया है, बिल्ली हट्टे-कट्टे चूहे को दाँतों में दबाए, ऊंची गर्दन किये, सीना ताने कमरे से बाहर जा रही थी। चूहे का पूँछ उसके पँजों के पास तक जमीन को स्पर्श कर रहा था।

आज जब किसी पड़ोसी को बिल्लियाँ पालते, उनका ऑपरेशन करा, उन्हें पैकेट के भोजन कराते देखती हूँ तो मासूम जानवरों पर दया आती है। ऐसा लगता है कि जानवरों को प्यार से पालने के स्थान पर ये बिल्लियों के स्वाभाविक जीवन शैली को ही खत्म कर रहे हैं। ये बिल्लियाँ चूहों को पकड़ने, उन्हें भगाने या डराने की कुशलता खो चुकी है। क्योंकि कार के पार्किंग स्थान पर जब ये बिल्लियाँ घूमती होती हैं एवं कोई मोटा चूहा सामने आ जाता है तो ये पूँछ फुलाये शरीर घनुष की कमानी की तरह ऊपर की ओर तानते हुए,चारों पंजों के नाखून पर खड़ी होकर, खुद ही डर कर पीछे भाग कर, अपने पालक मालिक-मालकिन के पास पहुँच जाती है।

आराम से सोती-जगती बिल्लियों की ये प्रजातियाँ भारत के उन मुफ्तखोरों की तरह ही हैं जो मुफ्त का अनाज,पानी, बिजली, घर, गैस, इज्जत घर आदि पाने के बाद सिर्फ खाने-सोने-बच्चे पैदा करने वाले निकम्मे जानवर बन गए हैं। स्वाभिमान विहीन ये मानसिक रूप से अपाहिज, मानसिक विकृतियों के शिकार लोग किसी भी प्रकार के मुफ्त के लोभ में आ कर खुद को असामाजिक तत्वों या देश के दुश्मनों के हवाले कर स्वयँ को बेच देते हैं। ये सरकार को गालियाँ देने में मशगूल हो अपने हुनर, अपने मेहनत, अपने काम करने की क्षमता, अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूकता एवं निष्ठा भी खो चुके हैं। विचार कर देखा जाए तो मुफ्तखोर गरीब एवं घुसपैठिये भी परजीवी जानवरों की श्रेणी में आ चुके हैं।

ये देश का दुर्भाग्य ही है कि दिन-ब-दिन ऐसे जाहिल- घुसपैठियों, कामचोर-परजीवियों, निकम्मे-मुफ्तखोरों की संख्या बढ़ती ही जा रही है जिसके कारण अथक परिश्रम कर टैक्स भरने वालों के अधिकारों का हनन हो रहा है। मेहनती तथा देश को आगे बढ़ाने के कार्य में लगे लोगों को स्वच्छ- सुरक्षित वातावरण तथा विकास का लाभ नहीं मिल पा रहा है। मुफ्त की सुविधाएं, राशन-पानी आदि देने का वादा करने वाली सरकारें निकम्मों एवं परजीवी जोंकों की संख्या में बढ़ोतरी करवा रही है जिसके कारण घुसपैठियों की संख्या भी बढ़ रही है एवं देश की अर्थव्यवस्था को भी नुकसान हो रहा है । सच्चाई यह भी है कि जाति या धर्म के नाम पर आरक्षण देने वाली कोई भी सरकार वस्तुतः योग्य एवं मेहनती लोगों के अधिकार का हनन कर देश की प्रगति को बाधित करते हुए, अयोग्यों को विशेषाधिकार दे अराजकता को बढ़ावा दे रहे हैं। अयोग्यों को आरक्षण के स्वाद की आदत लग जाने के कारण ये बिना मेहनत किये ऐयाशी की जिंदगी जीते हैं एवं उश्रृंखल हो उत्पात मचाने एवं देश को नुकसान पहुँचाने में भी लगे रहते हैं।

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