Chinese betrayal

चीन का प्यार : The Chinese agression

चीन के लोग बहुत ही भोले -भाले,प्यारे-प्यारे दिखते हैं,बुड्ढे! तो लगता है,ये होते ही नहीं है। इनके टेढ़े-मेढे ड्रैगन चाल और नीतियाँ भी आये दिनों नए -नए रूप में सामने आती रहती हैं। राहुल सांस्कृत्यायन के यायावरी साहित्य में कैलाश-मानसरोवर के यात्रा की चर्चा के साथ तिब्बती लोंगों के रहन-सहन और उदारता की भी चर्चा की गई है। उस समय तक 'तिब्बत' एक स्वतंत्र देश था, जहाँ भारतीयों तथा नेपाली यात्रियों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। यूँ भी कैलाश-मानसरोवर हिन्दुओं के समुदाय के लिए भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है।

तिब्बत के पूर्व-दलाईलामा की दो पत्नियों में एक चीन से तथा दूसरी नेपाल से थी और बौद्ध धर्म के अनुयायी होने के कारण इन तीनों देशों के सम्बंध मैत्रीपूर्ण थे। माओवादी सरकार के आने के बाद चीन की मैत्री, मैत्रीपूर्ण-विस्तारवादी-नीति में परिवर्तित हो गई I इसके साथ ही इसने अपने सीमा-क्षेत्र से लगने वाले पड़ोसी देशों की जमीन को शातिर अंदाज़ में अधिग्रहण करना आरम्भ कर दिया।

भारत के साथ सबसे बड़ी समस्या रही है कि इसके दोनों ही पड़ोसी, पाकिस्तान और चीन, छल-छद्म के साथ अपनी विस्तारवादी नीति को कामयाब कर रहे है, जिसमें भारत की काँग्रेस सरकार की ढुलमुल नीतियों का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। चीन अपने आपको उदार प्रदर्शित कर, पड़ोसी देशों के साथ कोई भेदभाव नहीं करता, देश की सीमाओं को नजर अंदाज कर, पड़ोसी देशों के शुभचिंतक होने का एहसास दिलाता है जैसे कोई भी शिकारी, शिकार को भ्रमित करता है।

तिब्बत के लोगों पर प्यार बरसा कर, वहाँ विकास को महत्व प्रदान किया गया,रोड,इमारतें आदि बनाई गई,पुनः अचानक वहाँ से तिब्बतियों को खदेड़ दिया गया। इसी फॉर्मूला के प्रयोग से 'पूर्वी-तुर्किस्तान','अंदरूनी मंगोलिया', 'मंचूरिया' चीन की थाली में आ गए।

कहीं विकास की भूमिका तो कहीं चीन के "युआन"और "मिंग" राजवंशों के शासन के कारण चीन उन देशों को अपने ही देश का भाग मानने का राग अलापता है। इस तरह पुराने तथ्यों का हवाला दे कर , ताईवान, वियतनाम आदि देश के बहुत बड़े भूभाग पर चीन की वक्र दृष्टि लगी हुई हैं। पड़ोसी देशों की जमीन के अलावे, समुद्र के भी बहुत बड़े हिस्से पर इसने अपना अधिकार जमाया हुआ है और बहुत से हिस्से पर अपना अधिकार बताने के कारण विवादों से भी घिरा हुआ है। मजे की बात है कई बार कुछ देशों के विवादित हिस्सों पर शान्ति-वार्ता के बाद फैसला चीन के ही पक्ष में गया है,उदाहरण के लिए रूस और कजाकिस्तान के भी कुछ भूभाग चीन के अधिकार में आ गए है। चीन की कूटनीति ने उत्तर कोरिया को भी काफी मजबूत बनाया है, अब उसके 'जिन्दाओ' इलाके को वह अपना मानता है, हालाँकि इस पर अपना आधिपत्य नहीं जमा पाया है। अफगानिस्तान के व्यापारिक रास्तों पर जो चीन की सीमा से लगा हुआ है उस पर भी अपना अधिकार प्रदर्शित करता रहा है।

अब इसे "सुरसा का मुख" कहा जाए या ड्रैगन का पाँव, यह जिस किसी भी देश के साथ उदारता, मित्रता रखता है,अपने पाँव फैलता है रोड, इमारतें आदि बना कर विकास की गतिविधियों को तेज करता है,फिरआधिपत्य की घोषणा कर देता है।

चीन के निशाने पर भारत के भू-भागों को हड़पने की चाल बहुत पुरानी है।"हिंदी-चीनी भाई-भाई " का नारा देते-देते लद्दाख का बड़ा भूभाग उसके कब्जे में चला गया है। आज के संदर्भ में भारत के जागरूक सरकार के समक्ष चीनी सिपाहियों को जो आये दिन भारतीय भूभाग पर पिकनिक मानते थे,उन्हें डोकलाम, पेनगांगसो आदि अन्य जगहों पर उसे पाँव फैलाने से रोका गया तो उसे बुरा लगना स्वभाविक ही था।

'कोविड' महामारी के कारण बहुत से देशों की चीन के प्रति नाराज़गी ने इसे सीधे तौर पर आक्रामक रुख अख्तियार करने के प्रति सचेत किया।अपने आप को इल्जामों में घिरा देख 'चीन' भारत को ही दोषी करार करने की कोशिश में लग गया है। चीन की मित्रता पूर्ण विस्तार वादी नीति के पँजे में पाकिस्तान और नेपाल भी आ गए हैं, जहाँ आम जनता त्रस्त है और सरकार चुप्पी साधे हुए है।

भारत भी दोहरी प्रकृति के दुश्मनों से घिरा है : एक ओर इस्लामिक आतंकवाद का विस्तारवाद है जो देश के अन्दर अपनी जड़ें जमा रहा है,यहाँ इस्लामिक कट्टरवादिता फैलाना चाहता है,दूसरी ओर चीन की विस्तारवादी सेना है जो "दो कदम आगे एक कदम पीछे' के फार्मूले को अपनाते हुए भारत के भूभाग पर कब्जा करने की साजिश कर रहा है। इन दोंनों ही प्रकार के दुश्मनों से निपटना चुनौती पूर्ण है।

आज ज्यादातर देश चीन के विस्तारवादीऔर पाकिस्तान के जिहादी इस्लामी आतंकवाद के रवैय्ये को पहचान गए हैं। इसलिए अन्य देशों का सतर्कता बरतना भी स्वाभाविक ही हैं। चीन के विरुद्ध खड़े होने वाले देशों के गुस्से में "वुहान-वायरस-कोविड" ने भी उत्प्रेरक डालने का काम किया है,जिसके कारण चीन अपने प्यार-प्रदर्शन-फार्मूले का उपयोग नहीं कर पा रहा है। पाकिस्तान भी अर्थव्यवस्था की गिरती हालात के कारण अपनी जिहादी भाषण का पूर्ण उपयोग नहीं कर पा रहा है। इन दोनों देशों का भारत से एवं यहाँ के पी.एम.की पॉलिसी से चिढ़ना,इनके वक्तव्यों में स्पष्ट झलकता है। भारत की कूटनीतिक चक्रव्यूह के द्वारा इन देशों से तो निपटा जा सकता है,परन्तु अंदरूनी दुश्मनों का क्या किया जाए..?..?..?

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