Seeds fo evil

"विष-वृक्षारोपण" - The Seeds of Evil

देखा तो नहीं परन्तु सुनने में आया है कि अफ्रीका के जंगलों में मांसाहारी तथा नरभक्षी वृक्ष भी पाये जाते हैं, भारत में इसके होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता, परन्तु इस अभाव की पूर्ति सांकेतिक तौर पर कुछ नेताओं द्वारा की जा रही है।

भारतीय संस्कृति में वृक्षारोपण की परंपरा अत्यंत पुरानी है। सामान्य तौर पर नदियों और मंदिरों के पास पीपल, नीम, बरगद, आंवला, तुलसी, पारिजात, बेलपत्र तथा औषधियों के पेड़ लगाए जाते हैं। पीपल और बरगद की पूजा क्रमशः शनिवार, सोमवती अमावस्या एवं बट-सावित्री के अवसर पर करना मान्यताओं के अनुसार मनुष्य को विभिन्न आपदाओं से बचाती है।आंवला एकादशी भारत के लगभग हर राज्य में कृषकों द्वारा वृक्षारोपण के रूप में मनाया जाता है।

गहराई से देखा जाए तो विभिन्न त्योहारों एवं शुभ अवसरों पर कुछ पेड़ों का महत्व हिन्दुओं के वैदिक कर्मकाण्डों में पूजा-पाठ के साथ ही जुड़े हुए होते हैं। सुपाड़ी, नारियल, बेल, केला एवं अन्य फल-फूलों का तो प्रायः हर पूजा-पाठ में उपयोग होता ही है यहाँ तक कि घास की भी कई प्रजाति दूर्वा और कुशा भी महत्वपूर्ण है। पितृपक्ष में कुशा-अमावस्या पर प्रायः साल भर इस्तेमाल के लिए कुशों का संग्रहण कर लिया जाता है। यद्यपि अज्ञानता वश छोटी से छोटी जड़ी-बूटियों के संग्रहण को किसी विशेष नक्षत्र या मुहूर्त पर ही तोड़ने के विधान को समझना कठिन है, परन्तु हमारे पूर्वजों ने इसे दैनिक-जीवन में विशेष अवसरों के साथ जोड़ कर इसके संरक्षण के महत्व को बड़ी ही सरलता से जीवन-शैली में जोड़ दिया है।

आज शहरों, गाँवों में इन महत्वपूर्ण वृक्षों की कमी हो गयी है, जो प्रकृति में शुद्ध हवा देने के साथ-साथ आयुर्वेदिक महत्त्व भी प्रदान करते थे। वृक्षारोपण के नाम पर भी ऐसे वृक्षों को लगाया जा रहा है जो पृथ्वी की नमी को शोषित करते हैं एवं बरगद, पीपल, बेल या नीम की तरह दीर्घायु भी नहीं होते है। ऐसा लगता है कि पश्चिमीकरण का प्रभाव हमारे वृक्षारोपण के क्षेत्रों पर भी पड़ा है और हमारे देश के अक्षय-वटों, पौराणिक-पूज्य-पीपल वटों का भी धीमी गति से संहार हो रहा है। वर्णसंकर का प्रभाव फसलों, फलों एवं वन्यक्षेत्रों में भी कुछ इसी प्रकार हो रहा है जैसे हमारी लाखों-वर्ष पुरानी संस्कृति, विदेशियों और घुसपैठियों की संस्कृति के प्रभाव से, वर्णसंकर होती जा रही है या क्षीणप्राय हो रही है।

ये चिंता का विषय है कि भारतवर्ष के सभी पुण्य-भूमि, तीर्थ-भूमि पर विदेशी रिलिजन या मज़हबियों का धीमी गति से कहीं बालात, कहीं धूर्तता तथा कहीं नेताओं की स्वार्थी-वोट-लोभ की प्रवृत्ति के कारण कब्जा होता जा रहा है। धार्मिक रूप से संरक्षित कहे जाने वृक्षों की कटाई के साथ-साथ हिन्दुओं के धार्मिक-स्थलों और जमीनों पर भी अवैध अधिग्रहण प्रायः सरकारी महकमों के नाक तले हो रहे हैं जिन्हें बाद में हटाना सिर्फ दंगे-फ़साद को ही आमन्त्रित करने का काम करेंगे।

बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान तथा मुस्लिम देशों में, जनसंख्या-विस्फोट, राक्षस-संस्कृति के उपासकों के कारण वहाँ के सभी हिन्दुओं-सिख्खों, बौद्धों, जैनों तथा उनके धार्मिक स्थलों को पहले ही इस्लामी-राक्षसों द्वारा क्षतिग्रस्त कर दिया जा चुका है। यहाँ तक कि मुस्लिम समुदाय के लिये उदारवादी कहे जाने वाले ईसाइयों को भी इस्लामिकों ने अपनी राक्षसी प्रवृत्तियों का ग्रास बना लिया है और उनके धार्मिक स्थलों को भी बर्बाद कर दिया है। वर्तमान स्थिति में इस्लामिक देशों में अल्पसंख्यक लगभग नगण्यसंख्यक हो चुके हैं तो इनकी रक्त-पिपासु जिह्वा तथा माँस-भक्षण की प्रवृत्ति भला कैसे सन्तुष्ट होगी ?. ...इसलिये ये राक्षस-प्रवृत्ति के विषैले लोग लोकतांत्रिक देशों की ओर उन्मुख हो रहे हैं।

यहाँ पूरी दुनियाँ के गैर-इस्लामिकों के लिए सोचना आवश्यक है कि विष-वृक्ष कभी मीठे फल नहीं देते हैं। राक्षस-संस्कृति के संवाहक मज़हबी लोग जिनका अभ्युदय विध्वंसक, बर्बरता, रक्त-पिपासु-प्रवृत्ति, लूट-शोषण, बलात्कार आदि के आधार पर हुआ है, वह भला कब तक शांतिपूर्ण, प्रेमपूर्ण या सौहार्द्य के वातावरण को किसी भी देश में बना रहने दे सकते हैं? भारत के विभिन्न राज्यों में भी इन विष-वृक्षों, रक्त-पिपासु-राक्षसों की या खूँखार-जंगलियों की संख्या इतनी ज्यादा हो गयीं हैं कि भोले जनजातियों या सभ्य मनुष्यों की तो छोड़ो.. ! ..घास खाने वाले जानवर गाय, भैस, बंदर, हाथी आदि भी सुरक्षित नहीं रह गये हैं।

वोट-बैंक के लोभी नेताओं की स्वार्थी प्रवृत्तियों ने प्रवासी भारतीय मजदूरों को तो अपने-अपने राज्यों से भगा दिया है परन्तु बांग्लादेशी-रोहिंज्ञाओं, उईगर मुस्लिमों तथा आई. एस.आई. ऐसे विष-वृक्षों को जमाना आरम्भ कर दिया है ।भारतीय संस्कृति और शांति के 'ये दुश्मन' नेता भारत के हिन्दुओं के लिए ही नही बल्कि कुछ शान्ति प्रिय मुस्लिम समुदाय के लिए भी अत्यंत खतरनाक हैं। ये राक्षस संस्कृति के उपासक जानवर तुल्य जिहादी-मज़हबी लोग जो निरंतर हिन्दुओं की औरतों का शिकार कर, उन्हें प्रताड़ना दे, उन्हें राक्षस संस्कृति अपनाने के लिये बाध्य कर रहे हैं या उन्हें क्रूरतापूर्ण मौत दे रहे हैं I ये कभी भी विषाक्त वातावरण का सृजन कर रक्त-पिपासु, माँस-भक्षक बन, भारत की सनातन-संस्कृति एवं सनातन-वैदिक-संस्कृति के उपासक समुदायों का नर-संहार कर सकते हैं।

अगर ध्यान से देखा जाए तो विदेशियों के द्वारा धीमी गति से सनातनी-वैदिक संस्कृति एवं वैदिक-संस्कृति के उपासकों का आये दिनों किसी न किसी तरीके से कुछ राज्यों में राज्य-सरकार की लापरवाहियों एवं स्वार्थी प्रवृत्तियों के कारण, सँहार हो ही रहा है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कुछ राज्य-सरकार के सत्तारूढ़ नेता भारत में आदमख़ोर-विष-वृक्षों का रोपणकार्य यह सोच कर रहें हैं कि उनको कोई नुकसान नहीं होगा।

सेक्युलरिज़्म के उपासक, स्वार्थी-सत्तारूढ़ हिन्दू नेता भी ये भूल जाते हैं कि कभी सिन्ध के अमीर-सिंधी-व्यापारी, कश्मीर के सभी अमीर पण्डित और अन्य इस्लामी देशों के गैर इस्लामिक समुदाय भी यही सोचते थे कि वहाँ के मुस्लिम दोस्त उनका कोई नुकसान नहीं करेंगे। परन्तु सच्चाई यही है कि इस्लामिकों का मझहबी-किताब-कुरान ही जिहादी कट्टरता को दूसरों पर थोपने के लिए, गैर-इस्लामियों के प्रति बर्बरता, कत्ल, लूट, बलात्कार, बालात धर्म-परिवर्तन और अपने मातहतों को गुलामी का जामा पहनाने के लिये बढ़ावा देता है।

यहाँ के देश-हितैषी नेताओं को ईरान, इराक, सीरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश के बाद कश्मीर, केरल, असम से सीख और समझ लेनी चाहिये। सेक्युलरिज़्म की उदारता की आड़ में वोटबैंक के लोभी नेता ऐसे इस्लामी-जिहादी-राक्षसों को पनाह दे रहे हैं, पाल रहे हैं,जो यहाँ के मूल-निवासियों के लिए नुकसान दायक हैं। ये वही सम्प्रदाय हैं जिन्होंने अपनी आतंकी-जिहादी प्रवृतियों के द्वारा कई देशों के साथ-साथ वहाँ के मूल निवासियों को भी अपनी रक्त-पिपासु जिह्वा का ग्रास बना लिया है और बचे-खुचे गणतान्त्रिक देश भी अब इनके निशाने पर हैं।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि कट्टरपंथी-जिहादी-आतंकी एवं विदेशी समुदाय को शरण देना, बसाना या पालना, विष-वृक्षों को रोपने और पालने के जैसा ही है। पुरानी कहावत है "रोपै पेड़ बबूल का आम कहाँ तक होय" या "उड़कुस्सी के रोएँ कभी शीतलता नहीं देती है"।

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